सम्यग्दृष्टि की निर्भयता Fearlessness of Samyagdrishti in the Samayasara

jain muni

Samayasara:

Fearlessness of Samyagdrishti in the Samayasara

 सम्यग्दृष्टि की निर्भयता

प्रो. अनेकांत कुमार जैन ,नई दिल्ली

Samayasara

Samayasara सम्यग्दृष्टि निर्भय होता है या इसे इस प्रकार भी कह सकते हैं कि जो निर्भय होता है वही सम्यग्दृष्टि होता है । Samayasara ज्ञानी को यह दृढ श्रद्धा होती है कि प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है ,कोई द्रव्य किसी अन्य द्रव्य का कर्ता नहीं है । प्रत्येक द्रव्य की जो पर्याय जिस समय जिस निमित्त तथा जिस पुरुषार्थ पूर्वक जैसी परिणमित होनी है वैसी ही होती है अन्यथा नहीं । इस मान्यता के बाद भय के लिए अवकाश नहीं रह जाता है ।रयणसार ग्रन्थ में भी ‘भय-वसण-मल-विवज्जिय’[1] कह कर

Samayasara सम्यग्दृष्टि के स्वरुप में उसे भय रहित होना स्वीकार अनिवार्य रूप से स्वीकार किया है तथा चवालीस दोषों में इसे एक बहुत बड़ा दोष माना गया है ।[2] आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने Samayasaraसमयसार के निर्जरा अधिकार में कहा [3]

सम्मादिट्ठी जीवाणिस्संका होंति णिब्भया तेण 

              सत्तभय-विप्पमुक्काजम्हा तम्हा दु णिस्संका ।।    

अर्थात् सम्यग्दृष्टि जीव भयरहित होने के कारण निःशंक होते हैं । चूँकि वे सात प्रकार के भयों से रहित होते हैं, इसीलिये वे निःशंक होते हैं ।

Samayasara सम्यग्दृष्टि को यह पूरा श्रद्धान है कि वह पर द्रव्य से अप्रभावी है इसलिए वह पर द्रव्यों के बीच में रहने से भी क्यों डरे ? अतः वह वस्तु स्वरुप का विचार करता हुआ सदैव निःशंक अर्थात् निर्भय रहता है ।[4] आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी ने उसकी ‘निसर्ग निर्भयता’ कहकर उसे स्वभावतः निर्भय माना है ।[5] अर्थात् उसे इस निर्भयता के लिए कुछ करना नहीं होता यह विशेषता प्राकृतिक रूप से उसका गुण है । वे आत्मख्याति टीका में इस निर्भयता का बहुत बड़ा कारण बताते हुए कहते हैं कि येन नित्यमेव सम्यग्दृष्टयः सकल कर्मफलनिरभिलाषा: सन्तो अत्यन्तकर्मनिरपेक्षतया वर्तन्ते ,तेन नूनमेते अत्यन्तनिश्शन्कदरुणाध्यवसायाः सन्तो अत्यन्तनिर्भया: संभाव्यन्ते । [6]

सम्यग्दृष्टि ज्ञानी जीव की कर्मफल निराभिलाषा होने से वह उसके प्रति अत्यंत निरपेक्ष है अतः अत्यंत निर्भयता की सम्भावना है । सम्यग्दृष्टि ज्ञानी जीव यह मानता है कि कर्म मुझसे बंधे हैं , मैं कर्मों से नहीं बंधा हूँ अतः उसे कर्मोदय का कोई भय नहीं रहता |

Samayasara:पंडित बनारसीदास जी : ज्ञानी की निर्भयता

पंडित बनारसीदास जी ज्ञानी की निर्भयता बतलाते हुए कहते हैं[7] –

जमकौसौ भ्राता दुःख दाता असाता कर्म

ताकै उदै मूरख न साहस गहतु है |

सुरगनिवासी भूमिवासी औ पतालवासी ,

सबहीकौ तन मन कंपितु रहतु है ||

उरकौ उजारौ न्यारौ देखिये सपत भैसों ,

डोलत निसंक भयौ आनंद लहतु है |

सहज सुवीर जाकौ सासतौ सरीर ऐसौ ,

ग्यानी जीव आचारज कहतु है || 

अत्यंत दुःख देने वाला ऐसा असाता कर्म जो मानो यमराज का ही भाई है ,जिससे तीनों लोकों के जीवों का तन मन कांपता है ,ऐसे कर्म के उदय में अज्ञानी जीव अपना साहस खो देते हैं किन्तु ज्ञानी जीव के हृदय में ज्ञान का प्रकाश है वह सहज ही निर्भय सुवीर है,वह जानता है कि उसका ज्ञान शरीर अविनाशी है अतः वह परम पवित्र है ,इसलिए वह सप्त भय से रहित निःशंक डोलता है |

पंडित  जगन्मोहनलाल शास्त्री जी इस कलश की व्याख्या लिखते हुए कहते हैं कि ‘सम्यक्त्व के प्रभाव से जीव निशंक होता है |उसे किसी प्रकार की शंका या भय नहीं होता | सम्यग्दृष्टि जानता है कि मैं ‘ज्ञान शरीर हूँ’….वह यह जानता है कि यह शरीर पौदगलिक है –मुझसे भिन्न स्वरुप वाला जड़ पदार्थ है |जीव की कर्माधीनता के फल स्वरुप यह जीव का कारागृह है |कारागृह को दुःख का कारन जानते हैं अतः उसके प्रति अनुराग नहीं है | फलतः उसके नाश में अपने नाश की कोई शंका या भय नहीं है | सम्यग्दृष्टि इसी से सहज ही निःशंक या निर्भय या निष्कंप है |[8]

डॉ भारिल्ल जी  के अनुसार  सम्यग्दृष्टि ज्ञानी जीव निर्भय होते हैं; उनकी निर्भयता का आधार वस्तुस्वरूप जान लेना ही होता है। कविवर बुधजनजी लिखते हैं – हमें कछु भय ना रेजान लियो संसार” अब हमें किसी भी प्रकार का भय नहीं है; क्योंकि हमने संसार का स्वरूप जान लिया है। उनकी निर्भयता का आधार सुरक्षा की व्यवस्था नहीं है; अपितु संसार का स्वरूप जान लेना है । [9]

यहाँ हमें जिस भय से निर्भयता की बात समझाई जा रही है उस भय का स्वरुप और उससे से ज्ञानी जीव किस प्रकार निर्भय रहता है यह जान लेना बहुत आवश्यक है ।

भय का स्वरुप एवं भेद

आचार्य पूज्यपाद के अनुसार जिसके उदय से उद्वेग होता है वह भय है।[10] आचार्य वीरसेन स्वामी भीति को भय कहते हैं । उनके अनुसार परचक्र के आगमनादिका नाम भय है।[11] उदय में आये हुए जिन कर्म स्कन्धों के द्वारा जीव के भय उत्पन्न होता है उनकी कारण में कार्य के उपचार से ‘भय’ यह संज्ञा है।[12]  जिस कर्म के उदय से जीव के सात प्रकार का भय उत्पन्न होता है, वह भय कर्म है।[13] कसायपाहुड में भय को द्वेष रूप माना है ; क्योंकि यह क्रोध के समान अशुभ का कारण है ।[14] लगभग सभी आचार्यों ने भय के सात भेद ही स्वीकृत किये हैं – इहलोक भय, परलोक, अरक्षा, अगुप्ति, मरण, वेदना और आकस्मिक भय ।[15] कविवर बनारसीदास जी ने भी इन्हीं सात भयों का स्वरुप समझाया है |[16]

इसके अलावा भी अनेक भय हो सकते हैं किन्तु प्रमुखता की अपेक्षा ये स्वीकृत किये गए हैं | ज्ञानी जीव को जो निर्भय कहा है वह सभी भयों की अपेक्षा कहा है चाहे उनकी संख्या कितनी भी हो |

१-२ इह लोक पर लोक भय

मेरे इष्ट पदार्थ का वियोग न हो जाये और अनिष्ट पदार्थ का संयोग न हो जाये इस प्रकार इस जन्म में क्रन्दन करने को इहलोक भय कहते हैं।परभव में भावि पर्यायरूप अंश को धारण करने वाला आत्मा परलोक है और उस परलोक से जो कंपने के समान भय होता है, उसको परलोक भय कहते हैं। यदि स्वर्ग में जन्म हो तो अच्छा है, मेरा दुर्गति में जन्म न हो इत्यादि प्रकार से हृदय का आकुलित होना पारलौकिक भय कहलाता है | [17] इस भव में लोगों का डर रहता है कि ये लोग न मालूम मेरा क्या बिगाड़ करेंगे, ऐसा तो इसलोक का भय है, और परभव में न मालूम क्या होगा ऐसा भय रहना परलोक का भय है।[18]

आचार्य अमृतचंद्र कहते हैं कि चित स्वरुप लोक ही तेरा लोक है इससे भिन्न समस्त तत्त्व पर लोक हैं जिनसे मेरा कोई लेना देना नहीं – ऐसा मानने वाले सम्यग्दृष्टि को इह लोक-पर लोक का भय कैसा ?[19]

3.वेदना भय

शरीर में वात, पित्तादि के प्रकोप से आने वाली बाधा वेदना कहलाती है। मोह के कारण विपत्ति के पहले ही करुण क्रन्दन करना वेदना भय है। मैं निरोग हो जाऊँ, मुझे कभी भी वेदना न होवे, इस प्रकार की मूर्च्छा अथवा बार-बार चिन्त्वन वेदना भय है।[20]

आचार्य अमृतचंद्र कहते हैं कि ज्ञान ही वेदन में आता है यही एक वेदना है । ज्ञानी को कोई अन्य पुद्गल जन्य वेदना होती ही नहीं है ।इसलिए वेदना भय नहीं है । ‘एषा एका एव हि वेदना’-(कलश १५६ )एक आनंद का ही वेदन ज्ञानी को है ,अन्य राग आदि का वेदन नहीं है ।

4.अरक्षा भय

जैसे कि बौद्धों के क्षणिक एकान्त पक्ष में चित्त क्षण-प्रतिसमय नश्वर होता है वैसे ही पर्याय के नाश के पहले अंशीरूप आत्मा के नाश की रक्षा के लिए अक्षमता अत्राणभय (अरक्षा भय) कहलाता है।[21]हमारा कोई भी रक्षक नहीं है ऐसी ऐसी चिंता करना अरक्षा भय है |[22]

आचार्य अमृतचंद्र कहते हैं तत् ज्ञानं किल स्वयमेव सत् ततः अपरैः अस्य त्रातः किम् ? ।-(कलश १५७)ज्ञान स्वयं में सत्ता स्वरुप है इसलिए उसे किसी से रक्षा की आवश्यकता ही नहीं है – सम्यग्दृष्टि ऐसा जानता,मानता है अतः उसके अरक्षा भय का सवाल ही नहीं उठता |

५. अगुप्ति भय

जिसमें किसी का प्रवेश नहीं ऐसे गढ़, दुर्गादिक का नाम गुप्ति है उसमें यह प्राणी निर्भय होकर रहता है । जो गुप्त प्रदेश न हो, खुला हो, उसको अगुप्ति कहते हैं, वहाँ बैठने से जीव को जो भय उत्पन्न होता है उसको अगुप्ति भय कहते हैं।[23] असत् पदार्थ के जन्म को, सत् के नाश को मानने वाले, मुक्ति को चाहने वाले शरीरधारियों को उस अगुप्ति भय से कहाँ अवकाश है।[24]

आचार्य अमृतचंद्र कहते हैं   किल स्वरूपम् वस्तुतः परमगुप्तिः अस्ति । – (कलश १५८)

वस्तु का स्वरुप ही परमगुप्ति है ,सम्यग्दृष्टि ज्ञान स्वरुप को ही परमगुप्ति मानता है अतः उसको अगुप्ति भय नहीं रहता ।

६.मरणभय

मैं जीवित रहूँ, कभी मेरा मरण न हो, अथवा दैवयोग से कभी मृत्यु न हो, इस प्रकार शरीर के नाश के विषय में जो चिन्ता होती है, वह मृत्युभय कहलाता है।[25] आचार्य अमृतचंद्र कहते हैं-

आत्मनः प्राणः किल ज्ञानं -(कलश १५)

ज्ञान ही आत्मा का वास्तविक प्राण है और वह शाश्वत है अतः उसका मरण संभव नहीं – ज्ञानी ऐसा जानता है अतः उसको मरण भय नहीं है ।

७. आकस्मिक भय

अकस्मात् उत्पन्न होने वाला महान् दुःख आकस्मिक भय माना गया है। जैसे कि बिजली आदि के गिरने से प्राणियों का मरण हो जाता है। जैसे मैं सदैव नीरोग रहूँ, कभी रोगी न होऊँ, इस प्रकार व्याकुलित चित्तपूर्वक होने वाली चिन्ता आकस्मिक भीति कहलाती है।[26] अकस्मात् भयानक पदार्थ से प्राणी को जो भय उत्पन्न होता है वह आकस्मिक भय है।[27] आचार्य अमृतचंद्र कहते हैं  अत्र आकस्मिकं किञ्चन न भवेत् (कलश १६०) ज्ञान स्वतः सिद्ध है यहाँ आकस्मिक कुछ भी नहीं होता । अतः ज्ञानी को आकस्मिक भय नहीं होता ।

निष्कर्ष –

इस प्रकार हमने यहाँ समझा कि ज्ञानी जीव का वस्तु स्वरुप सम्बन्धी यथार्थ श्रद्धान ही उसकी सहज निर्भयता का मुख्य आधार है | आचार्यों ने भय का स्वरुप भी बताया जिसमें हमने समझा कि भय या भीति एक उद्वेग है , वह अशुभ का कारण होने से द्वेष रूप भी है |इसका मुख्य कारण ही अज्ञान है और जो ज्ञानी है उसमें मूल कारण का अभाव होने से यह भय उसमें सहज ही नहीं होता है | भय का मूल कारण मिथ्या कल्पनाएँ हैं जिसका वस्तु स्वरुप से कोई नाता नहीं होता है | ज्ञानी जीव यथार्थवादी होता है उसमें इस प्रकार की मिथ्या कल्पनाएँ सहज ही नहीं होतीं हैं अतः भय का कोई कारण नजर नहीं आ रहा है |

Samayasara निर्जरा अधिकार की २२८ गाथा में आया कि सम्यग्दृष्टि निःशंक है | अधिकांश लोग भविष्य के प्रति आशंकित रहते हैं और इन सातों भयों का सम्बन्ध भविष्य के प्रति आशंका ही है |सम्यग्दृष्टि का व्यक्तित्त्व सशंकित नहीं है फिर भी लोक में व्याप्त सप्त भय के प्रति उसकी दृष्टि क्या रहती है ? इसका वर्णन आचार्य अमृतचंद्र जी ने कलश १५५ से १६० तक किया है |उसमें उन्होंने कहा कि चूँकि सम्यग्दृष्टि अपने ज्ञान स्वरुप को ही सर्वस्व मानता है अतः

१.   ज्ञान ही उसका लोक है अतः इह पर लोक भय का मतलब ही नहीं है |

२.   ज्ञान का ही वेदन करता है अतः अन्य पुद्गल जन्य वेदना को वह कुछ समझता ही नहीं है |

३.   ज्ञान स्वयं सत्ता स्वरुप है अतः किसी की रक्षा की आवश्यकता नहीं है |

४.   ज्ञान स्वरुप ही परमगुप्ति है अतः उसको अगुप्ति भय का सवाल ही नहीं उठता |

५.   ज्ञान ही प्राण है और वह शाश्वत है अतः उसको मरण भय नहीं है ।

६.   ज्ञान स्वतः सिद्ध है यहाँ आकस्मिक कुछ भी नहीं । अतः ज्ञानी को आकस्मिक भय की बात ही नहीं।

ये कलश कहकर आचार्य ने सम्यग्दृष्टि की निर्भीकता का मूल कारण बता दिया है | अब प्रश्न यह है कि भय कर्म प्रकृति का उदय होने पर वह भय रूप परिणमन करता है या नहीं ? मेरी दृष्टि में उसका समाधान यह है कि ऐसे ही समय के लिए तो उसने ज्ञानानंद स्वभावी आत्मा का आश्रय लिया था ,वह अपने भेद ज्ञान के माध्यम से उस उदय जन्य भय के प्रति अपनी प्रज्ञा छैनी का प्रयोग कर स्वयं को उसके कर्तृत्व से भिन्न मानता हुआ निर्भय वर्तता है | वह कर्मोदय को कुछ नहीं मानता है इसलिए निर्भय रहता है और नवीन बंध न करता हुआ पूर्वबद्ध भय कर्म की निर्जरा ही कर देता है – इसे भी वह कर्म खिर जाने से निर्भयता ही कहा जायेगा |

अमृतचन्द्र आचार्य का यह कथन इसी तथ्य को पुष्ट करता है – ‘सम्यग्दृष्टि उपस्थित मोह के कारण भय कर्म प्रकृति के उदय को तो भोगता है किन्तु निशंकित(भय रहित) आदि गुण होने से शंकादि(कल्पित भय ) कृत बंध नहीं होता है बल्कि पूर्व कर्मों की निर्जरा ही होती है’ |[28]

इस प्रकार सम्यग्दृष्टि स्वभाव से ही सभी प्रकार के भयों से रहित होता हुआ मोक्षमार्ग में संलग्न रहता है |

सन्दर्भ :

[1] रयणसार ,गाथा 5

[2] रयणसार ,गाथा 7

[3] Samayasaraसमयसार ,निर्जरा अधिकार गाथा 228

[4] कलश 150 ,प्रवचन रत्नाकर भाग 7 ,पृष्ठ 58

[5] कलश  154

[6] Samayasara समयसार गाथा 228 पर आत्मख्याति टीका ,पृष्ठ,374

[7] Samayasara समयसार नाटक ,पंडित बनारसी दास ,निर्जरा द्वार ,छंद 47

[8] अध्यात्म अमृत कलश ,154 का भावार्थ ,पृष्ठ 194

[9] आखिर हम क्या करें ?-डॉ हुकुमचन्द भारिल्ल,पृष्ठ-

[10] यदुदयादुद्वेगस्तद्भयम् । – सर्वार्थसिद्धि /8/9/386/1

[11] परचक्कागमादओ भयं णाम। ध.13/5,5,64/336/8

[12] भीतिर्भयम्। जेहिं कम्मक्खंधेहिं उदयमागदेहि जीवस्स भयमुप्पज्जइ तेसिं भयमिदि सण्णा, कारणे कज्जुवयारादो।– धवला 6/1,9-1,24/47/9

[13] जस्स कम्मस्स उदएण जीवस्स सत्त भयाणि समुप्पज्जंति तं कम्मं भयं णाम । ध.13/5,5,96/361/12

[14] अरइ-सोय-भय-दुगुंछाओ दोसो कोहोव्व असुहकारणत्तादो।(क.पा./1/चूर्णसूत्र व टी./1-21/335-336/365)

[15] इहपरलोयत्ताणं अगुत्तिमरणं च वेयणाकिस्सि भया। – मू.आ./53 तथा समयसार /तात्पर्यवृत्ति /228/309/9

[16] समयसार नाटक ,पंडित बनारसी दास ,निर्जरा द्वार ,छंद 48-49

[17] तत्रेह लोकतो भीतिः क्रन्दितं चात्र जन्मनि।

इष्टार्थस्य व्ययो माभून्माभून्मेऽनिष्टसंगमः।।

परलोकः परत्रात्मा भाविन्मान्तरांशभाक्।

ततः कम्प इव ज्ञासो भीतिः परलोक-तोऽस्ति सा ।।

भद्रं चेज्जन्म स्वर्लोके माभून्मे जन्म दुर्गतौ।

इत्याद्याकुलितं चेतः साध्वसं पारलौकिकम् ।।    – पंचाध्यायी /506,516,517

[18] समयसार ,गाथा 228/कलश 155 पर वचनिका- पं. जयचन्द जी

[19] कलश 155

[20] वेदनागन्तुका बाधा मलानां कोपतस्तनौ।

भीतिः प्रागेव कम्पः स्यान्मोहाद्वा परिदेवनम्।।

उल्लाधोऽहं भविष्यामि माभून्मे वेदना क्वचित्।

मूर्च्छैव वेदनाभीतिश्चिन्तनं वा मुहुर्मुहः।।  – पंचाध्यायी /524-525

[21] अत्राणं क्षणिकैकान्ते पक्षे चित्तक्षणादिवत् ।

नाशात्प्रागंशनाशस्य त्रातुमक्षमतात्मनः।। पंचाध्यायी /531

[22] रच्छक हमारौ कोऊ नांही अनरच्छा-भय | – समयसार नाटक ,निर्जरा द्वार ,छंद 49

[23] समयसार ,गाथा 228/कलश 158 पर वचनिका- पं. जयचन्द जी

[24] असज्जन्म सतो नाशं मन्यमानस्य देहिनः ।

कोऽवकाशस्तो मुक्ति मिच्छतोऽगुप्तिसाध्वसात्।। पंचाध्यायी /537

[25] तद्भीतिर्जीवितं भूयान्मा भून्मे मरणं क्वचित्।

कदा लेभे न वा दैवात् इत्याधिः स्वे तनुव्यये।। पंचाध्यायी /540

[26] अकस्माज्जामित्युचेराकस्मिकभयं स्मृतम्।

तद्यथा विद्युदादीनां पातात्पातोऽसुधारिणाम्।।

भीतिर्भूयाद्यथा सौस्थ्यं माभूद्दौस्थ्यं कदापि मे।

इत्येवं मानसी चिन्ता पर्याकुलितचेतसा।। पंचाध्यायी /543-44

[27] समयसार ,गाथा 228/कलश 160  पर वचनिका- पं. जयचन्द जी

[28] कलश161

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