The meaning of being Dr.Hukumchand Bharill . डॉ०हुकुमचंद भारिल्ल होने के मायने

Hukumchand Bharill

Namokar Mantra

The meaning of being Dr.Hukumchand Bharill

जैन जगत् में डॉ०हुकुमचंद भारिल्ल होने के मायने

प्रो.डॉ० अनेकान्त कुमार जैन

लगभग पिछले सात दशकों से भी अधिक समय से अपने सिद्धान्तों के साथ स्पष्टवादिता और संतुलित भाषा शैली में मूल जैन तत्त्वज्ञान को आबाल गोपाल तक के दिलोदिमाग में जमाने का नियमित रूप से कार्य कर रहे डॉ० हुकुमचन्द भारिल्ल Hukumchand Bharill जी आज अब हमारे बीच नहीं हैं |उनके होने के कई मायने थे । उन मायनों में से हम कई मायनों को समझ लेते हैं और कई को नहीं। मैंने उनके व्यक्तित्व को नज़दीक से भी देखा है और दूर से भी कई बार उन्हें उनके साहित्य, प्रवचन और उनकी रीति-नीतियों के माध्यम से अपने अन्दर महसूस करने की भी कोशिश की है। लेकिन उनके बहु-आयामी व्यक्तित्व के कुछ ही आयामों को देख पाया हूँ। उनके होने के कई अर्थ थे जिसमें एक प्रधान अर्थ था – सच बोलने का साहस और सलीका | हममें से अधिकांश में खुद कभी साहस आता है तो सलीका नहीं आता, कभी सलीका आता है तो साहस नहीं आता। कहते हैं बोलना सीखने में हमें बचपन के दो-तीन वर्ष लगते हैं पर कब, कहाँ, कैसे और क्या बोलना है यह सीखने में पूरा जीवन लग जाता है। यही बात लेखन के साथ भी है। कुशल वक्ता के साथ ही लेखन में डॉ० साहब Hukumchand Bharill सिद्धहस्त सम्पादक, ग्रन्थकार, निबन्धकार तथा कवि थे , इतना सबकुछ एक साथ एक स्थान पर होना दुर्लभ होता है।

बीमारी और विवाद उनके हम सफ़र रहे । वो और ये दोनों अक्सर एक जगह साथ रहते थे । किन्तु अपनी दृढ़ इच्छा शक्ति और संकल्पों की बदौलत उन्होंने इन्हें कभी अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया, अपने नियमित कार्य कभी रुकने नहीं दिये। यह कम आश्चर्य नहीं कि उन्होंने इन्हें विधि के विधान और कर्मों का खेल जानकर, उपहार समझ प्यार से स्वीकार भी किया और सहन भी । इसलिए अनेक संघर्षों का जहर अपने भीतर छुपाकर वे किसी समन्दर की भांति शांत और गहरे दिखलायी देते थे । अपनी निजी शिकन को भी वे चेहरे पर नहीं आने देते थे और सदा मुस्कुराते रहते थे ।

भारत में आज शायद ही कोई ऐसा विद्वान होगा, जिससे ईर्ष्या करने वालों की संख्या सबसे ज्यादा हो। मेरे पिताजी’ अक्सर मुझसे कहा करते हैं कि ईर्ष्या के पात्र भले ही बन जाओ पर दया के पात्र कभी मत बनना क्यों कि दया का पात्र वह होता है जो ईर्ष्या करता है ।

डॉ० साहब Hukumchand Bharill उन लोगों के प्रति भी दया की दृष्टि रखते थे जो उनके विरोध में पम्पलेट: पत्रिका में प्रश्नवाचक चिन्ह लगाकर कवर पृष्ठ पर उनकी फोटो तथा किताबें तक छापते थे । वे उन पर कोई प्रतिक्रिया न करके उनकी छटपटाहट जरूर बढ़ा देते थे, पर ऐसा करके वे अपने समय का सदुपयोग अपने रचनात्मक कार्यों को अधिक गतिशील बनाने में करते । ऐसा नहीं है कि डॉ० साहब ने स्वयं कभी किसी की आलोचना नहीं की, की , पर उसमें साहस और सलीका दोनों दिखलाया।

अपनी असहमति की स्पष्ट और मर्यादित अभिव्यक्ति भी एक कला होती है जो सभी में दिखलाई नहीं देती। सोनगढ़ से जन्मीं विकृतियों की भी उन्होंने हमेशा खिलाफत की है। इसलिए अपने ही गढ़ में उन्हें शुरु से विरोध झेलना पड़ा तो दूसरी तरफ बाहर से हमेशा मुनिपंथियों की आंखों की किरकिरी भी बने रहे, इनमें विरोध झेलने तथा उससे न घबड़ाने की अपूर्व क्षमता दिखलायी देती थी ।

मेरे स्वयं दिगम्बर मुनिपंथ (तेरापंथ, बीसपंथ) मुमुक्षु, श्वेताम्बर तेरापंथ, स्थानकवासी,मूर्तिपूजक आदि अनेक विभक्त सम्प्रदायों से गहरे तालुकात रहे हैं और हैं। मैंने यह पाया है कि अन्य सम्प्रदायों में यदि मुमुक्षु समाज की कोई पहचान बनी है तो डॉ० साहब के कारण बनी है, लोग उन्हें ही जानते हैं क्योंकि वे सभी जगह जाते हैं। अन्य शास्त्रीय जैन विद्वत्परम्परा में भी मुमुक्षुओं में से निमन्त्रणीय कोई दिग्गज विद्वान् समझ में आता था  तो वे भी डॉ० साहब ही दिखायी देते थे । कानजी स्वामी की आध्यात्मिक प्रवचनकारों की शिष्यपरम्परा में यदि संस्कृत की शास्त्रीय पद्धति से प्रशिक्षित डॉ० भारिल्ल Hukumchand Bharill न होते तो इस परम्परा को बहुत बड़ा विस्थापन झेलना पड़ता- यह एक यथार्थ तथ्य है। उनके चिन्तन को व्यवस्थित, शास्त्रीय प्रमाण सहित सम्पूर्ण जैन समाज के मध्य प्रतिष्ठित करने का श्रेय भी डॉ० साहब को ही जाता है अन्यथा कानजी स्वामी का चिन्तन श्रीमद् राजचन्द्र आदि अनेक आध्यात्मिक साधकों की तरह उन्हीं की चार दीवारी में गूंज कर रह जाता।मुख्यधारा में नहीं आ पाता |

जैन समाज की भी यह विशेषता रही है कि उसने कभी नये चिन्तन को फलने-फूलने का मौका नहीं दिया। इसीलिए जैनदर्शन नदी बनकर उन्मुक्त बहकर जन-जन की प्यास बुझाने की बजाय राजमहलों की बावड़ियों में इकट्ठा होकर आज भी बस रजवाड़ों की शोभा जैसा ही बना हुआ है।

यह बात मैं कई बार कहता हूँ कि हमें चिन्तन के स्तर पर कभी दरिद्र नहीं होना चाहिए। जो जिस लायक है, जिसका जैसा और जितना योगदान है कम से कम उतना तो हमें स्वीकार करना चाहिए। यह बात मैंने मुनि श्री तरुणसागर जी के बारे में लिखते समय भी की थी कि मैंने आज तक कभी अजैनों के मध्य जैनमुनि के प्रवचनों का इतना जबरदस्त क्रेज नहीं देखा जितना तरुणसागरजी का है। उनका साहित्य रेलवे स्टेशन के बुकस्टालों पर भी ऊँचे दामों में भी बिकता है। जैन संस्कृति का इतना ज्यादा सामान्यीकरण उनके अलावा अन्य का उतना दिखायी नहीं देता था । हम जैनधर्म की जिस ख्याति के लिए तरसते हैं, कोई कर दिखाये तो उसी की टांग खींचने लगते हैं, उसकी निन्दा करने लगते हैं | कुछ बातें हर प्रसिद्ध व्यक्ति की आलोच्य हो सकती हैं, होती भी हैं लेकिन उसने जो कुछ अच्छा दिया है कम से कम उतना क्रेडिट तो उस व्यक्ति को मिलना ही चाहिए। उसके समग्र जीवन के योगदान का मूल्यांकन मात्र उसकी निन्दा करना नहीं है। हमें धन्यवाद देना भी सीखना चाहिए। आज डॉ० साहब ने हजारों विद्वानों तथा प्रवचनकारों की फौज खड़ी कर दी है, लाखों साहित्य समाज की रग रग में पहुँचा दिया है तो सिर्फ सोनगड़िया कहकर उनके अवदान को उपेक्षित नहीं किया जा सकता, यह तो कृपणता होगी।

डॉ० साहब यदि पूज्य आचार्य विद्यानन्द मुनिराज के सान्निध्य में समयसार वाचना करते हैं, तो निश्चित रूप से उनसे कुछ विशिष्ट अर्थ सीखते हैं और स्वयं का चिन्तन भी बतलाते हैं। जैन एकता के प्रतीक के रूप में किसी मन्दिर में श्वेताम्बरमूर्ति की बेदी के साथ दिगम्बरमूर्ति की अनुमोदना करते हैं, श्वेताम्बर भाईयों के निमन्त्रण पर भी उन्हें जैन तत्त्वज्ञान प्रदान करने देश-विदेश में भ्रमण करते हैं तो यह उनकी उदात्त भावना का प्रतीक है और यही कारण है कि मुमुक्षु समाज भी समाज की मुख्य धारा में चलने की सोच पाता है अन्यथा आप अलग-थलग पड़े रहेंगे तो न तो खुद का कोई भविष्य तय कर पायेंगे और न समाज का। यदि उनकी इस प्रकार की रीति-नीति को हम हतोत्साहित करने का प्रयास करते हैं तो वास्तव में हम खुद के पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं ओर अपनी सीमित शक्ति, धन, साधन, ट्रस्ट, संस्था आदि का दुरुपयोग ही कर रहे हैं।

मैं मानता हूँ कि हर बात पर मिथ्यात्व का डर उन्हें सताता है जिन्हें खुद की नीयत और सम्यक्त्व पर भरोसा नहीं है। मैं तो मुसलमानों तक के अन्तर्राष्ट्रिय मंच पर भी अहिंसा और शाकाहार की बात कहता हूँ, फिर भी वे मुझे बार-बार बुलाते हैं और सुनते हैं। जब मैं अनेकान्त दर्शन की व्यापकता बताता हूँ तब अजैन अक्सर यह प्रश्न करते हैं कि अनेकान्त दर्शन का प्रयोग स्वयं जैन समाज खुद को समझाने और विवादों को सुलझाने में क्यों नहीं करता ? उनके प्रश्नों का कोई सन्तोषजनक उत्तर हम आज तक नहीं दे पाये हैं। सम्पूर्ण समाज को व्यक्तिवाद से भी बचना चाहिए और विद्वानों, प्रतिष्ठाचार्यों को अपनी व्यक्तिगत कषायों को कम करके सार्वजनिक हित को दृष्टि में रखकर सबको साथ लेकर रचनात्मक कार्य करना चाहिए, अन्यथा दिशाहीन होते और बिखरते देर नहीं लगेगी।

डॉ० साहब सबको एक सूत्र में पिरोकर चलने का प्रयास कर रहे थे , इसलिए उनकी सीमा में सिर्फ वृहत्तर भारतीय जैन समाज ही नहीं वरन् विदेशों में बसा हुआ जैन समाज भी था । इसमें खुद की लोकेषणा का लोभ उनमें बिल्कुल नहीं था – ऐसा तो हम निश्चित रूप से नहीं कह सकते, किन्तु यदि था भी तो इसमें आश्चर्य क्या है? वो तो हम आप और सन्तों तक में है। हमें कोई मौका मिल जाये तो हम चूकते हैं क्या ? खुद को मौका नहीं मिला तो जिसे मिला है उससे ईर्ष्या या उसकी निन्दा करो- क्या हमारा यही काम रह गया है? फिर भी भारत के नगर-नगर में उनका अभिनन्दन समारोह आयोजित होना या करवाया जाना आलोचना का कम ईर्ष्या का ज्यादा केन्द्र बना। यशवन्त कोठारी मे अपनी व्यंग्यात्मक पुस्तक”हिन्दी की अन्तिम किताब” में पुरस्कार की परिभाषा करते हुये लिखा है कि जो मुझे मिलना चाहिए था और दूसरे को मिल गया उसी का नाम पुरस्कार है। यही दशा हम जैसे अनेक विद्वानों की हो रही है। उनके जैसा कुछ करना नहीं चाहते, पर उनके जैसा पाना सबकुछ चाहते हैं | आज उनमें इतनी क्षमता है, वो इस योग्य हैं, इसलिए उनका हर जगह अभिनन्दन अतिशयोक्ति नहीं लगता। उनका सम्मान करने से हमारी कृतज्ञता प्रकट होती है और नयी पीढ़ी को प्रेरणा और संस्कार प्राप्त होते हैं, हमें तो लाभ ही है । मैं तो यह सोचकर प्रसन्न होता हूँ कि इस सदी में कोई तो ऐसा जैन विद्वान् हुआ है जिसका अभिनन्दन समारोह नगर-नगर में हो रहा है। समाज में शास्त्रीय विद्वानों की किस हद तक मान्यता या सम्मान है- यह सभी जानते हैं। यह शास्त्रीय पण्डितों की पूरी जमात का अभिनन्दन समझा जाना चाहिए, इस दृष्टि से वे हमारे प्रतीक बन गये थे । यूं समझिए वे जैन विद्वज्जगत् के अमिताभ बच्चन थे , जो उम्र के इस पड़ाव में भी हम युवाओं से ज्यादा जोश और होश दोनों रखते थे ।

वे एक ऐसे लेखक और प्रवचनकार थे जो कुछ लोगों से उपेक्षित होने के बावजूद अपने पाठकों और श्रोताओं के कारण ही अविस्मरणीय और बड़े हुए थे । उनके जाने के बाद आज भी भारत ही नहीं बल्कि विदेशों में भी सबसे अधिक पढ़ा और सुना जाने वाला यदि कोई गृहस्थ जैन विद्वान् है तो ये डॉ० साहब ही है। इसका सबसे बड़ा कारण उनका आध्यात्मिक तथा सामाजिक यथार्थवादी दृष्टिकोण था । वे मूल समस्या से सीधा साक्षात्कार करते थे  और अपने रचनाशिल्प के कारण विचारों को झकझोरते और भावना को छूते थे । उनकी यथार्थवादी दृष्टि इस बात से भी सिद्ध होती है कि उन्होंने कभी भी खुद को सम्यग्दृष्टि जैसा कुछ घोषित या सिद्ध करने का प्रयास नहीं किया ,चाहते तो कर सकते थे क्योंकि इस प्रकार के हथकण्डे अपना कर गुजराती मुमुक्षुओं में पुजना कोई कठिन काम नहीं है। लेकिन इस प्रकार के भ्रामक व्यक्तित्व निर्माण के वे कभी हिमायती नहीं रहे और न शिष्यों को ऐसी प्रेरणा दी। अपनी रचनाधर्मिता, प्रज्ञाशीलता और उदात्तता के बल पर ही वे विरोधों के बीच भी अडिग होने की क्षमता रखते थे । उनके विरोधों निन्दा या आलोचना से उनकी कोई हानि होती हो या न होती हो पर सौमनस्क की इस धारा के विकास में जरूर अवरोध आ सकता है, जो आत्मघात जैसा ही कुछ होगा, किन्तु यह बाद में पता चलेगा हाथी का विरोध या आलोचना भी हाथी या शेर जैसा ही कुछ होना चाहिए, अन्य जीव-जन्तु यदि ऐसा करते हैं तो उसमें विरोध कम छटपटाहट और हताशा ज्यादा नज़र आती है।

एक साहित्यकार और प्रसिद्ध वक्ता होने के नाते डॉ.साहब की समीक्षा भी जरूर होनी चाहिए। वे कोई भगवान या केवलज्ञानी थोड़े ही थे जो उनकी लिखी या कही हर बात अक्षरशः सही ही हो | वे वो व्यक्त करते थे जो उनकी प्रज्ञा में सही बैठता था , जिसे वो सच जानते या मानते थे , वो मानते या जानते कुछ और थे और कहते या लिखते कुछ और ही थे ऐसा बिल्कुल नहीं था | जबकि हममें से कई लेखकों और वक्ताओं की स्थिति कमोवेश ऐसी है | उनके लिखे या कहे की समीक्षा जरूर की जानी चाहिए, किन्तु उनके जैसी प्रज्ञा धारण करके तथा उन्हें गहनता से पढ़कर | चूंकि वे कोई भी बात या तो आगम प्रमाण से सिद्ध करते थे या तर्क प्रमाण से । शास्त्रोक्त प्रमाण सहित ही उनकी ऐसी समीक्षा की जानी चाहिए थी जिसे पढ़कर या सुनकर उन्हें भी आनन्द आता और उत्तर देने में दम लगानी पड़ती। इसमें यदि कोई सही बात सामने निकलकर आती तो उन्हें भी अपनी गलती विनम्रतापूर्वक स्वीकार करते और मुझे नहीं लगता कि इस मामले में वे कोई जिद या दुराग्रह रखते । अन्यथा वेदों को बिना पढ़े उसकी आलोचना, गांधी को बिना समझे या पढ़े उनकी समीक्षा, जैनदर्शन का मर्म जाने बिना उसकी आलोचना करने वालों की भी कमी नही है | ये तात्कालिक माहौल भले ही खराब कर देते हो पर कोई स्थायी प्रभाव नहीं डाल पाते हैं । इन दिनों जैन पत्रकारिता में भी कुछ खास समालोचना मुखरित नहीं हो पा रही है। हम आलोचना का अर्थ निन्दा समझते हैं और समीक्षा का अर्थ प्रशंसा | हम स्वस्थ समालोचना की तरफ क्यों नहीं देखते? हम व्यक्ति या साहित्य की या तो भक्ति करने लग जाते हैं या निन्दा | इसके अलावा तीसरी कोई चीज जिसमें समभाव से गुणों या दोषों दोनों का विवेचन होता है हमारी दृष्टि में क्यों नहीं आता? समालोचना में भी राग-द्वेष से ऊपर उठकर साक्षीभाव से मात्र गुण-दोषों का मूल्यांकन होना चाहिए। इसलिए हमें विवेक से काम लेना चाहिए | लेकिन जैसा कि मैंने कहा कि वो भगवान तो नहीं थे , और कमजोरियां किसमें नहीं होती हैं ,इसलिए उनमें भी थीं ? किन्तु यदि हम छिद्रान्वेषी बन वृक्ष की पत्तियों के दलों के मध्य से आती धूप ही देखते रहेंगे तो छायासुख का अनुभव कैसे कर पायेंगे ? इसलिए हमें उनके प्रति भी विशाल दृष्टि रखनी ही होगी तभी उनसे कुछ सीख पाएंगे |

जैनविद्या के क्षेत्र में उनका जो सार्वजनीन योगदान है वो इतना अधिक भव्य और विशाल है कि उनकी सहज मानवीय कमजोरियां  भी एक किस्म की विशेषता दिखायी देने लगती है। यह मेरा अनुभूत सत्य है कि जिन लोगों में कोई दुर्गुण नहीं होते उनमें गुण भी प्रायः कम ही होते हैं।

कुछ दुराग्रही वृद्ध लोगों के पास तो इनसे जीवन से प्रेरणा लेने का अवकाश शायद अब न बचा हो किन्तु मेरे जैसे युवा साथी जो आग्रह या दुराग्रह के कारण अभी तक उनके व्यक्तित्व और कर्त्तृत्व से अपरिचित हैं वे प्रेरणा ग्रहण कर सकते हैं कि जो कुछ गलत चल रहा है उसका समर्थन करके, लाभ और सम्मान प्राप्त करके समाजसेवा या जिनवाणी सेवा करना एक अलग बात है और गलत को गलत कहकर, उन्हीं का विरोध सहकर, उन्हीं की सेवा करना एक जुदी बात है, हिम्मत की बात है और अनुकरणीय है | लेकिन दुःख की बात यह भी है कि हम सभी ने मिलकर इन विषयों पर समाज का वातावरण इतना विषाक्त बनाकर रखा है कि अपने ही धर्म के अन्य सम्प्रदायों का साहित्य रखना पढ़ना ही अपने आप में एक जघन्य अपराध जैसा बना गया है | हमारा बच्चा बुक स्टॉल से अश्लील उपन्यास लाकर पढ़े तो भी इतना क्रोध नहीं आयेगा, जितना अन्य सम्प्रदाय द्वारा लिखित जिनवाणी पढ़ने पर आता है यह हम सभी का दुर्भाग्य है।

पूज्यनीय गुरुवर आदरणीय डॉ.हुकुमचंद भारिल्ल Hukumchand Bharill ,जिन्हें बड़े अधिकार से हम सभी छोटे दादा कहकर पुकारते थे ,अब इस जहाँ में नहीं हैं |उपरोक्त लेख मैंने २०११ में लिखा था और समन्वय वाणी ने इसे सर्व प्रथम प्रकाशित किया था,२०१३ में इसे अपने फेसबुक पर भी डाला, अनंतर जैनपथ प्रदर्शक में भी छपा | उस समय की तमाम परिस्थितियों के मध्येनज़र मैंने बहुत ही तटस्थ भाव से उनके वास्तविक व्यक्तित्त्व को शब्दों में उकेरने की एक कोशिश की थी |उसी लेख के कुछ सम्पादित अंशों को यहाँ प्रस्तुत किया है और ‘हैं’ की जगह ‘थे’का प्रयोग कर दिया है | आज हम उनके साहित्य को पढ़ें ,उससे सीखें और आगे बढ़ें –यही उनके प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी |

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