विश्व योग दिवस 21 जून पर विशेष –
Jain Yoga : जैन योग के बिना अधूरा है भारतीय योग
जैन योग के बिना अधूरा है भारतीय योग
✍️ प्रो.अनेकांत कुमार जैन,New Delhi
भारत की दार्शनिक और धार्मिक सांस्कृतिक परंपरा का मूल लक्ष्य है – दुःख से मुक्ति और मोक्ष की प्राप्ति । इसीलिए लगभग सभी भारतीय धर्म तथा दर्शन योग साधना को मुक्ति के उपाय के रूप में स्वीकार करते हैं भले ही उनके बाह्य रूप कुछ अलग-अलग हों । भारत के परम तपस्वी ऋषि-मुनियों ने अपनी आत्मानुभूति के लिए सम्यग्ज्ञान तथा अन्तर्दृष्टि के विकास के लिए इसी योग-साधना का आश्रय लिया था ।
वास्तव में योग भारतीय परंपरा की एक समृद्ध देन है । भारत में प्राचीन काल से ही जैन परंपरा ने योग एवं ध्यान विषयक महत्वपूर्ण अवदान दिया है किन्तु कई प्रयासों के बाद भी आज तक जैन योग की समृद्ध परंपरा को विश्व के समक्ष प्रभावक तरीके से इस प्रकार नहीं रखा गया कि २१ जून को विश्वयोग दिवस पर व्यापक स्तर पर जैन योग की भी चर्चा हो । यह दुःख का विषय है कि पूरा विश्व योग दिवस मना रहा है और कभी कभी तो उसमें योग ध्यान को महत्वपूर्ण योगदान देने वाली प्राचीन जैन योग परंपरा का उल्लेख तक नहीं किया जाता है ।
यूनेस्को ने २१ जून को विश्व योग दिवस की घोषणा करके भारत के शाश्वत जीवन मूल्यों को अंतरराष्ट्रिय रूप से स्वीकार किया है ।इस दिवस का भारत की प्राचीनतम जैन संस्कृति और दर्शन से बहुत गहरा सम्बन्ध है ।श्रमण जैन संस्कृति का मूल आधार ही अहिंसा और योग ध्यान साधना है ।इस अवसर पर यह जानना अत्यंत आवश्यक है कि जैन परंपरा में योग ध्यान की क्या परंपरा ,मान्यता और दर्शन है ?
Jain Yoga : जैन योग का इतिहास
आज तक के उपलब्ध साहित्य ,परंपरा और साक्ष्यों के आधार पर प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव योग विद्या के आदि प्रवर्तक माने जाते हैं –
उसहो जोगो उत्तं ,पढमो करीअ आसणतवझाणं।
लहीअ सुद्धाप्पं य,अप्पा मे संवरो जोगो ।।
प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ने सर्वप्रथम योग विद्या का उपदेश दिया । उन्होंने सर्वप्रथम आसन ,तप, ध्यान किया और शुद्ध आत्मा को प्राप्त किया और उपदेश दिया कि आत्मा ही संवर और योग है ।
जैन आगम ग्रंथों के अनुसार इस अवसर्पिणी युग के वे प्रथम योगी तथा योग के प्रथम उपदेष्टा थे ।उन्होंने सांसारिक (भौतिक)वासनाओं से व्याकुल ,धन-सत्ता और शक्ति की प्रतिस्पर्धा में अकुलाते अपने पुत्रों को सर्वप्रथम ज्ञान पूर्ण समाधि का मार्ग बताया ,जिसे आज की भाषा में योग मार्ग कह सकते हैं ।श्रीमद्भागवत में प्रथम योगीश्वर के रूप में भगवान् ऋषभदेव का स्मरण किया गया है ।वहां बताया है कि भगवान् ऋषभदेव स्वयं विविध प्रकार की योग साधनाओं का प्रयोगों द्वारा आचरण करते थे ।
भगवान् ऋषभदेवो योगेश्वरः । (श्रीमद्भागवत ५/४/३)
नानायोगश्चर्याचरणे भगवान् कैवल्यपतिऋषभः । (वही,५/२/२५)
जैन योग का इतिहास बहुत प्राचीन है ।प्राग ऐतिहासिक काल के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ने जनता को सुखी होने के लिए योग करना सिखाया ।मोहन जोदड़ो और हड़प्पा में जिन योगी जिन की प्रतिमा प्राप्त हुई है उनकी पहचान ऋषभदेव के रूप में की गयी है । मुहरों पर कायोत्सर्ग मुद्रा में योगी का चित्र प्राप्त हुआ है ,यह कायोत्सर्ग की मुद्रा जैन योग की प्रमुख विशेषता है ।इतिहास गवाह है कि आज तक प्राचीन से प्राचीन और नयी से नयी जितनी भी जैन प्रतिमाएं मिलती हैं वे योगी मुद्रा में ही मिलती हैं । या तो वे खडगासन मुद्रा की हैं या फिर वे पद्मासन मुद्रा की हैं। खडगासन में ही कायोत्सर्ग मुद्रा उसका एक विशिष्ट रूप है ।
पम्मखडगासणा खलु काउसग्गासणो वीयरागस्स ।
पूरयकुम्भयरेचण पाणायाम-तवो देहेण ।।
वीतराग मुद्रा के तीन मुख्य आसन हैं-पद्मासन ,खड्गासन और कायोत्सर्गासन । पूरक,कुम्भक और रेचन –ये तीन प्रमुख प्राणायाम हैं ।ये सभी शरीर के द्वारा किये जाने वाले तप हैं |
नासाग्र दृष्टि और शुक्ल ध्यान की अंतिम अवस्था का साक्षात् रूप इन प्रतिमाओं में देखने हो सहज ही मिलती है । इन परम योगी वीतरागी सौम्य मुद्रा के दर्शन कर प्रत्येक जीव परम शांति का अनुभव करता है और इसी प्रकार योगी बन कर आत्मानुभूति को प्राप्त करना चाहता है ।
Jain Yoga : जैन योग की अवधारणा
अंतिम तीर्थंकर महावीर ने भी ऋषभ देव की योग साधना पद्धति को आगे बढ़ाते हुए सघन साधना की । उनका अनुकरण करते हुए उन्हीं के समान आज तक नग्न दिगंबर साधना करके लाखों योगी आचार्य और साधू हो गए जिन्होंने जैन योग साधना के द्वारा आत्मानुभूति को प्राप्त किया ।जैन साधना पद्धति में योग और संवर एक ही अर्थ में प्रयुक्त हैं ।प्रथम शताब्दी में अध्यात्म योग विद्या के प्रतिष्ठापक आचार्य कुन्दकुन्द दक्षिण भारत के एक महान योगी थे उन्होंने प्राकृत भाषा में एक सूत्र दिया “ आदा मे संवरो जोगो (समयसार/२९५ )“अर्थात यह आत्मा ही संवर है और योग है ।जैन तत्त्व विद्या में जो संवर तत्त्व है वह ही आज की योग शब्दावली का द्योतक है । जैन योग के दो प्रमुख सूत्र हैं –संवरयोग और तपोयोग ।तप को पुष्ट करने और उसमें गहराई लाने के लिए बारह भावनाओं अर्थात् अनुप्रेक्षाओं का विधान है,अतः भावना योग भी जैन योग का एक प्रमुख अंग है ।
जैन दर्शन में योग शब्द कई सन्दर्भों में प्रयुक्त हुआ है ।जैसे एक तरफ वह संयम ,निर्जरा ,संवर आदि अर्थ में प्रयुक्त है वहीँ दूसरी तरफ मन-वचन-काय की प्रवृत्ति के अर्थ में भी प्रयुक्त है । जैन आगमों में ‘योग’ शब्द अनेक स्थानों पर संयम और समाधि अर्थ में मिलता है ,किन्तु इसका दूसरा सन्दर्भ भी है –मन –वचन-काय का व्यापार ,इस अर्थ में भी इसका प्रयोग आचारांग,उत्तराध्ययन सूत्र, तत्त्वार्थसूत्र आदि ग्रंथों में उपलब्ध है ।किन्तु वहां भी मन वचन काय की प्रवृत्ति के निरोध की प्रेरणा दी गयी है ।वहां यह निर्देशित है कि योगों के व्यापार से आस्रव और उनके निरोध से संवर होता है,जो मुक्ति के लिए आवश्यक सोपान होता है ।इस प्रकार प्राचीन साहित्य में योग शब्द संवर ,तप,ध्यान,साधना आदि के लिए प्रयुक्त होता रहा है । इस तरह जैन साधना पद्धति में योग का अपने मौलिक स्वरुप में विशेष महत्व होने के कारण इसमें जैन योग की महत्वपूर्ण भूमिका है ।
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जैन योग का उद्देश्य
जैन योग का लक्ष्य स्व-स्वरुपोपलब्धि है अर्थात आत्मानुभूति ।जहाँ योग एवं अन्य दर्शनों ने जीव का ब्रह्म में लीन हो जाना ही योग का ध्येय निश्चित किया है वहीँ जैन दर्शन निज शुद्धात्मा की पूर्ण स्वतंत्रता और पूर्ण विशुद्धि योग का ध्येय निश्चित करता है ।
अप्पा अप्पम्मि रओ, पवयणसारं अत्थि परं झाणं ।
झाणेण मोक्खसिद्धि जिणवरवसहेण णिद्दिट्ठं ॥
जिनागम का सार यही है कि
आत्मा आत्मा में रमे ,यही परम ध्यान है और ‘ध्यान से मोक्ष की सिद्धि होती है’- ऐसा जिनवर ऋषभदेव के द्वारा निर्दिष्ट किया गया है |
जैन दृष्टि के अनुसार योग का अभिप्राय सिर्फ चेतना का जागरण नहीं है बल्कि चेतना का ऊर्ध्वरोहण भी है ।इसका मूल कारण है कि जैन दर्शन ने आत्मा को स्वभावतः ऊर्ध्वगमन स्वभावी माना है ।संवर योग और निर्जरा योग जैन दर्शन की ऐसी विशिष्ट और मौलिक पहचान है जो अन्यत्र दुर्लभ है ।मन वचन और काय की एकाग्रता साधक को आत्मा के सन्मुख कर देती है और साधक आत्मिक आनंद का अनुभव करने लगता है ।जैन योग आलंबन में व्यक्त के साथ साथ अव्यक्त को भी
देखने और अनुभव करने की प्रेरणा देता है ।इस तरह यह जैन योग अनंत सुषुप्त आत्मिक शक्तियों को जागृत करने का सशक्त माध्यम है और यही जैन योग की प्रमुख विशेषता है ।
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ध्यान साधना की विशेषता
भगवान् महावीर ने ध्यान के बारे में एक नयी बात कही कि ध्यान सिर्फ सकारात्मक ही नहीं होता वह नकारात्मक भी होता है ।दरअसल आत्मा को जैन परंपरा ज्ञान दर्शन स्वभावी मानती है ।ज्ञान आत्मा का आत्मभूत लक्षण है ,किसी भी स्थिति में आत्मा और ज्ञान अलग नहीं होते और वह ज्ञान ही ध्यान है ,चूँकि आत्मा ज्ञान के बिना नहीं अतः वह ध्यान के बिना भी नहीं ।पढ़कर आश्चर्य लगेगा कि कोई ध्यान मुद्रा में न बैठा हो तब भी ध्यान में रहता है ।महावीर कहते हैं मनुष्य हर पल ध्यान में ही रहता है ,ध्यान के बिना वह रह नहीं सकता । ध्यान दो प्रकार के हैं नकारात्मक और सकारात्मक । आर्तध्यान
और रौद्रध्यान नकारात्मक ध्यान हैं तथा धर्म ध्यान और शुक्लध्यान सकारात्मक ध्यान हैं ।
चइउण चितविक्खेवं णाणस्स सुद्धधारा खलु झाणं ।
अपसत्थोपसत्थो य चउ अत्तरुद्दधम्मसुक्लं ।।
चित्त विक्षेप का त्याग कर जो ज्ञान की शुद्ध निर्मल धारा बहती है उसका नाम ध्यान है । वह ध्यान अप्रशस्त रूप आर्तध्यान और रौद्र ध्यान तथा प्रशस्त रूप धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान के भेद से चार प्रकार का है ।
मनुष्य प्रायः नकारात्मक ध्यान में रहता है इसलिए दुखी है ,उसे यदि सच्चा सुख चाहिए तो उसे सकारात्मक ध्यान का अभ्यास करना चाहिए ।वह चाहे तो धर्म ध्यान से शुभ की तरफ आगे बढ़ सकता है और शुक्ल ध्यान को प्राप्त कर निर्विकल्प दशा को प्राप्त कर सकता है । इस विषय की गहरी चर्चा जैन शास्त्रों में मिलती है ।वर्तमान में आचार्य महाप्रज्ञ द्वारा प्रवर्तित प्रेक्षाध्यान एवं जैन योग देश में तथा विदेशों में काफी लोकप्रिय हो रहा है ।आचार्य नानेश जी द्वारा प्रवर्तित समीक्षण ध्यान पद्धति , आर्यिका ज्ञानमति माता जी का त्रिलोक ध्यान ,मुनि प्रणम्य सागर जी का अर्हम योग तथा मुनि प्रमाण सागर जी का भावना योग वर्तमान में जैन योग की प्रायोगिक विधियाँ हैं जो काफी प्रचलित हैं ।
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जैनयोग के विविध आयाम –
भगवान् महावीर ने योग विद्या के माध्यम से कई साधना के कई नए आयाम निर्मित किये ।जैसे भावना योग ,अनुप्रेक्षा,अध्यात्म योग ,आहार योग ,प्रतिमा योग, त्रिगुप्ति योग,पञ्चसमिति योग,षडआवश्यक योग , परिषह योग ,तपोयोग, सामायिक योग ,मंत्र योग ,लेश्या ध्यान,शुभोपयोग, शुद्धोपयोग , सल्लेखना और समाधि योग आदि । एक साधारण गृहस्थ और मुनि की साधना पद्धति में भी भगवान् ने भेद किये हैं ।साधक जब घर
में रहता है तो उसकी साधना अलग प्रकार की है उसे श्रावकाचार कहा जाता है और जब वह गृह त्याग कर संन्यास ले लेता है तब उसकी साधना अधिक कठोर हो जाती है जिसे श्रमणाचार कहा जाता है ।आज भी जैन मुनियों की साधना और उनकी दिनचर्या उल्लेखनीय है । आज के इस विपरीत काल में भी धर्म ध्यान होता है |मनुष्य अपनी आत्मा का अनुभव करके श्रेष्ठ आनंद प्राप्त कर सकता है –
रयणत्तयेव जोगो जो खलु धारइ णियसत्तिरूवेण ।
सो अणिंदियाणंदं लहइ ‘अणेयंत’ सरुवप्पा ।।
रत्नत्रय ही योग है आज भी जो निज शक्ति रूप से इसे धारण करता है वह अतीन्द्रित आनंद और अनेकांत स्वरूपी आत्मा को प्राप्त करता है ।
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जैन योग का विशाल साहित्य
शायद ही ऐसा कोई जैन आध्यात्मिक साहित्य हो जिसमें योग ध्यान का विषय न हो । जैन आचार्यों ने योग एवं ध्यान विषयक हजारों ग्रंथों का प्रणयन प्राकृत एवं संस्कृत भाषा में किया है ।उनमें प्रमुख रूप से आचार्य कुन्दकुन्द के अध्यात्म योग विषयक समयसार,प्रवचनसार ,नियमसार,पंचास्तिकाय,अष्टपाहुड, पूज्यपाद स्वामी का इष्टोपदेश,समाधितंत्र ,सर्वार्थसिद्धि ,आचार्य गुणभद्र का आत्मानुशासन,आचार्य शुभचन्द्र का ज्ञानार्णव,आचार्य हरिभद्र का योग बिंदु,योगदृष्टि समुच्चय आदि दर्जनों ग्रन्थ आचार्य योगेंदु देव की अमृताशीति,जोगसारु आदि ,आचार्य हेमचन्द्र का योगदर्शन आदि प्रमुख हैं ।आधुनिकयुग में भी आचार्य विद्यासागर जी ,आचार्य विद्यानंद जी,आचार्य तुलसी ,आचार्य महाप्रज्ञ ,आचार्य शिवमुनि,आचार्य हीरा ,आचार्य देवेन्द्र मुनि,आचार्य आत्माराम,मुनि प्रमाणसागर जी ,मुनि प्रणम्यसागर जी आदि अनेकों संतों द्वारा तथा श्रीमद् राजचंद्र ,कांजी स्वामी जैसे आध्यात्मिक साधकों द्वारा एवं अनेक जैन विद्वान् अध्येताओं द्वारा जैन ध्यान योग पर काफी मात्रा में शोध पूर्ण साहित्य का प्रकाशन हुआ है तथा निरंतर हो रहा है ।जैन योग पर विभिन्न विश्वविद्यालयों से अभी तक सौ से अधिक शोधकार्य हो चुके हैं । जैन योग की सैकड़ों पांडुलिपियाँ ऐसी हैं जिन पर अभी तक शोधकार्य नहीं हुआ ,उनका प्रकाशन ,संपादन नहीं हुआ है ।
भारतीय योग विद्या को श्रमण संस्कृति का योगदान इतना अधिक है कि उसकी उपेक्षा करके भारतीय योग विद्या के प्राण को नहीं समझा जा सकता ।अतः हमें पाठ्यक्रमों में योग को पढ़ाते समय श्रमण जैन योग विद्या से भी अवश्य अवगत करवाना चाहिए क्यों कि जैन योग के बिना भारतीय योग अधूरा है ।
Very Nice