The influence of Lord Mahavir on the religion of Islam तीर्थंकर भगवान् महावीर का इस्लाम धर्म पर प्रभाव

Tirthankara Mahavir

TeerthankarThe influence of Lord Mahavir on the religion of Islam

भगवान् महावीर का इस्लाम धर्म पर प्रभाव

प्रो अनेकांत कुमार जैन,नई दिल्ली

तीर्थंकर भगवान् महावीर का सिद्धांत मूलतः अहिंसा, शाकाहार, समन्वय और सदाचार का हिमायती रहा है, उसकी कोशिश रही है कि सभी जीव सुख से रहें, जिओ और जीने दो- जैनधर्म का मूलमंत्र है। जैनधर्म ने अपने इस उदारवादी सिद्धान्तों से मुल्क के तथा विदेशी मुल्को के हर मजहब और तबके को प्रभावित किया है।

The extensive influence of Lord Mahavir.भगवान् महावीर का व्यापक प्रभाव –

इलाहाबाद से प्रकाशित होने वाली पत्रिका विश्ववाणी’ के यशस्वी संपादक पूर्व राज्यपाल तथा इतिहास विशेषज्ञ डॉ. विशम्बरनाथ पाण्डेय ने अपने एक निबन्ध ‘अहिंसक परम्परा’ में इस बात का जिक्र किया है। वे लिखते हैं कि-

‘इस समय जो ऐतिहासिक उल्लेख उपलब्ध है, उनसे यह स्पष्ट है कि ईस्वी की पहली शताब्दी में और उसके बाद के १००० वर्षों तक जैनधर्म मध्य-पूर्व के देशों में किसी न किसी रूप में यहूदी, ईसाई तथा इस्लाम को प्रभावित करता रहा है।‘

प्रसिद्ध जर्मन इतिहास लेखक वान व्रेमर के अनुसार मध्य-पूर्वमें प्रचलित समानियासंप्रदाय श्रमणशब्द का अपभ्रंश है |

इतिहास लेखक जी.एफ.मूर के अनुसार हजरतईसा की संख्या शताब्दी से पूर्व इराक, शास और फिलिस्तीन में जैन मुनि और बौद्ध भिक्षु सैकड़ों की संख्या में चारों तरफ फैले हुए थे। पश्चिमी एशिया, मिस्र, यूनान और इथियोपिया के पहाड़ों और जंगलों में उन दिनों अगणित भारतीय साधु रहते थे जो अपने त्याग और अपनी विद्या के लिए मशहूर थे, ये साधु वस्त्रों तक का त्याग किये हुये थे, अर्थात वे दिगम्बर थे।‘

सियाहत नामए नासिर का लेखक लिखता है कि इस्लाम धर्म के कलन्दरी तबके पर जैन धर्म का काफी प्रभाव पड़ा। कलन्दरों की जमात परिव्राजकों की जमात थी। कोई कलन्दर दो रात से अधिक एक घर में नहीं रहता था। कलन्दर चार नियमों का पालन करते थे- साधुता, सत्यता और दरिद्रता। वे अहिंसा पर अखण्ड विश्वास रखते थे

                                 

Lord Mahavir :

        The influence of Jain monks in Baghdad बग़दाद में जैन मुनियों का प्रभाव –

डॉ. कामता प्रसाद जैन जी अपने एक निबन्ध विदेशी’ संस्कृतियों में अहिंसा में लिखते हैं कि मध्यकाल में जैन दार्शनिकों का एक संघ बगदाद में जम गया था। जिसके सदस्यों ने वहाँ करुणा और दया, त्याग और वैराग्य की गंगा बहा दी थी। सिहायत नामए नासिर के लेखक की मान्यता थी कि इस्लाम धर्म के कलन्दर तबके पर जैनधर्म का काफी प्रभाव पड़ा था। वे लोग अपने प्राणों की बाजी लगाकर भी अहिंसा का पालन करते थे, ऐसे अनेक उदाहरण भी मिलते हैं। श्री विशम्बरनाथ पाण्डेय लिखते हैं कि एक बार दो कलन्दर मुनि बगदाद में आकर ठहरे। उनके सामने एक शुतुर्मुर्ग किसी का हीरों का हार निगल गया। सिवाय कलन्दरों को किसी ने यह बात नहीं देखी। हार की खोज हुई। कोतवालों को कलन्दर मुनियों पर संदेह हुआ। मुनियों ने मूक पक्षी के साथ विश्वासघात करना उचित नहीं समझा। उन्होंने स्वयं कोतवालों की प्रताड़ना सहन कर ली लेकिन शुतुर्मुर्ग के प्राणों की रक्षा की।

अलविया  फिर्के  के लोग हजरत अली की औलाद से थे- वे भी मांस नहीं खाते थे और जीव दया के पालते थे। ई. ९वीं-१०वीं शती में अब्बासी खलीफाओं के दरबार में भारतीय पण्डितो और साधुओं को बड़े आदर से निमंत्रित किया जाता था। इनमें जैन बौद्ध साधु भी होते थे। इस सांस्कृतिक संपर्क का सुफल यह हुआ कि ईरान में अध्यात्मवाद जगा और जीव दया की धारा बही।

वे लिखते हैं कि ‘प्राचीनकाल में अफगानिस्तान तो भारत का ही एक अंग था और वहाँ जैन एवं बौद्ध धर्मों का प्रचार होने से अहिंसा का अच्छा प्रचार था। ई. ६वी-७वीं शताब्दी में चीन यात्री हुएनसांग को वहाँ अनेक दिगम्बर जैन मुनि मिले थे।‘

Lord Mahavir:

The mention of Arabia in Jain scriptures.जैन आगमों में अरब का उल्लेख-

अरब का उल्लेख जैन आगमों में मिलता है। भारत से अरब का व्यापार चलता था। जादिस अरब का एक बड़ा व्यापारी था- भारत से उसका व्यापार खूब होता था। भारतीय व्यापारी भी अरब जाते थे। जादिस का मित्र एक भारतीय वणिक था। वह ध्यानी योगी की मूर्ति अपने साथ अरब लाया और उसकी पूजा करता। जादिस भी प्रभावित हो पूजा करने लगा। मौर्यसम्राट सम्प्रति ने जैन श्रमणों, भिक्षुओं के विहार की व्यवस्था अरब और ईरान में की, जिन्होंने वहां अहिंसा का प्रचार किया। बहुत से अरब जैनी हो गये, किन्तु पारस नरेश का आक्रमण होने पर जैन भिक्षु और श्रावक भारत चले गये। ये लोग दक्षिण भारत में बस गये और सोलकअरबी जैन कहलाये।

वे आगे लिखते हैं कि – सन् ९९८ ई. के लगभग भारत से करीब बीस साधु सन्यासियों का दल पश्चिम एशिया के देशों में प्रचार करने गया। उनके साथ जैन त्यागी भी गए, जो चिकित्सक भी थे। इन्होंने अहिंसा का खासा प्रचार उन देशों में किया। सन् १०२४ के लगभग यह दल पुनः शान्ति का संदेश लेकर विदेश गया और दूर-दूर की जनता की अहिंसक बनाया। जब यह दल स्वदेश लौट रहा था, तो इसे अरब के तत्त्वज्ञानी कवि अबुल अला अल मआरी से भेंट हुई। जर्मन विद्वान फ्रान क्रेमर ने अबुल-अला को सर्वश्रेष्ठ सदाचारी शास्त्री और सन्त कहा है।

Lord Mahavir:

Abul Ala became a pacifist due to the influence of Jain monks.जैन मुनियों के कारण अबुल-अला बने अहिंसावादी –

अबुल-अला गुरू की खोज में घूमते-घामते जब बगदाद पहुंचे, तो बगदाद के जैन मुनियों के साथ उनका समागम हुआ था और उन्होंने जैनशिक्षा ग्रहण की थी। इसका परिणाम यह हुआ कि अबुल अला पूरे अहिंसावादी योगी हो गये। वे केवल अन्नाहार करते थे। दूध नहीं लेते थे, क्योंकि बछड़े के दूध को लेना पाप समझते थे। बहुधा वे निराहार रहकर उपवास करते थे। कामता प्रसाद जी लिखते हैं कि वे शहद और अण्डा भी नहीं खाते थे। पगरखी लकड़ी की पहनते थे। चमड़े का प्रयोग नहीं करते थे। नंगे रहने की सराहना करते थे, सचमुच वे दया की मूर्ति थे।

इस प्रकार भगवान् महावीर के जैनधर्म दर्शन ने जलालुद्दीन रूमी एवं अन्य अनेक ईरानी सूफियों के विचारों को प्रभावित किया। जीव दया का यह चिंतन कुरान मजीद से भी प्रकट हुआ है। पार – १२ सत्ताइसवें नूर अन-नस्लमें २३ आयतें हैं जो मक्का में उतरी थी। उनमें एक प्रसंग बड़ा महत्त्वपूर्ण है-

‘‘सुलेमान के लिए उसकी सेनायें एकत्र की गयीं जिनमें जिन्न भी थे और मानव भी, और पक्षी भी, और उन्हें नियंत्रित रखा जाता था, यहाँ तक कि जब ये सब च्यूँटियों की घाटी में पहुँचे, तो एक च्यूँटी ने कहा : हे च्यूँटियों! अपने घरों में घुस जाओ ऐसा न हो कि सुलैमान और उनकी सेनायें तुम्हें कुचल डालें और उन्हें खबर भी न हो।‘

इसी पृष्ठ पर नीचे लिखा है कि च्यूँटियो की बात कोई सुन नहीं पाताः परन्तु अल्लाह ने हसरत सुलेमान अ. को च्यूँटियों की आवाज सुनने की शक्ति प्रदान की थी।[1] कुरआन मजीद का यह प्रसंग इसलिए संवेदनशील है कि संसार के छोटे से प्राणी चींटी की भी ह्रदय वेदना की आवाज को सशक्त अभिव्यक्ति देकर इस ग्रंथ में उकेरा गया है। यह अहिंसक भावना की सशक्त अभिव्यक्ति है।

बाद में सूफी कवियों ने भी अपनी रचनाओं में उन्हीं आध्यात्मिक चेतना को आवाज दी जो जैन परम्परा की अमूल्य मौलिक धरोहर रही है। एक उदाहरण प्रस्तुत है-

ता न गरदद नफ्स ताबे रुहरा, कैद वा यावी दिले मजरूहरा।

मुर्गे जाँ अ़ज हत्से यावद रिहा, गर बतेग् लकुशी ई अजहदा

अर्थात जबतक कि नफ्स(इन्द्रियां) आत्मा के वश में नहीं होतीं,तब तक ह्रदय का आताप संताप दूर नहीं हो सकता ,शरीर सम्बन्ध से भी आत्मा मुक्त हो जाए ,यदि इस अजदहे (नफ्स)को वैराग्य की खडग से मार डाला जाए |

Even Islam was influenced by Lord Rishabhdev ऋषभदेव से भी प्रभावित रहा इस्लाम

जैन परंपरा में महावीर चौबीसवें अंतिम तीर्थंकर हैं किन्तु उनसे पूर्व तेईस तीर्थंकर हुए हैं जिसमें प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव हुए हैं , इस्लाम में बाबा आदम की चर्चा होती है ,जैन धर्म आदिनाथ ऋषभदेव की चर्चा करता है | आचार्य विद्यानंद मुनिराज अपनी पुस्तक ‘विश्वधर्म की रूपरेखा’ पृष्ठ 19 में लिखते हैं कि –

‘इस्लाम मतानुसार सृष्टि के आदि में एक ही मनुष्य जाति थी | मनुष्यों को सन्मार्ग पर चलाने के लिए बाबा आदम ने धर्म का उपदेश दिया |’आदम’आदिनाथ का अपभ्रंश शब्द है | …इस्लामी ग्रंथों में बतलाया गया है कि नबी का बेटा रसूल था ,जिसको खुदा (परमात्मा) ने ईश्वरीय उपदेश जनता तक पहुँचाने के लिए पैदा किया | इसका भी अभिप्राय यह है कि नबी (नाभि)का पुत्र बेटा रसूल (ऋषभ)हुआ जो मनुष्यों में पहला धर्मोपदेशक हुआ | नबी शब्द नाभि का अपभ्रंश है और रसूल शब्द ऋषभ का अपभ्रंश है | मैराजुलनबूत नमक मुसलमानी पुस्तक में लिखा है कि बाबा आदम हिंदुस्तान में पैदा हुए | इसके अनुसार भी बाबा आदम का अभिप्राय भगवान् आदिनाथ ऋषभदेव से सिद्ध होता है |

Lord Mahavir:

The influence of non-violence in Islam.इस्लाम में अहिंसा का प्रभाव   

भगवान महावीर की अहिंसा का प्रभाव विश्व के लगभग सभी धर्मों पर पड़ा | किसी पर थोडा पड़ा किसी पर ज्यादा पड़ा |

मुस्लिम समाज में मांसाहार आम बात है। किन्तु ऐसे अनेक उदाहरण भी देखने में आये हैं जहाँ इस्लाम के द्वारा ही इसका निषेध किया गया है। इसका सर्वोत्कृष्ट आदर्शयुक्त उदाहरण हज की यात्रा है। मैंने अपने कई मुस्लिम मित्रों से इसका वर्णन साक्षात् सुना है तथा कई स्थानों पर पढ़ा है कि जब कोई व्यक्ति हज करने जाता है तो इहराम (सिर पर बाँधने का सफेद कपड़ा) बाँध कर जाता है। इहराम की स्थिति में वह न तो पशु-पक्षी को मार सकता है न किसी जीवधारी पर ढेला फेक सकता है और न घास नोंच सकता है। यहाँ तक कि वह किसी हरे-भरे वृक्ष की टहनी पत्ती तक भी नहीं तोड़ सकता। इस प्रकार हज करते समय अहिंसा के पूर्ण पालन का स्पष्टविधान है। उनके यहाँ इहराम की हालत में शिकार करना मना है

इतना ही नहीं, इस्लाम के पवित्र तीर्थ मक्का स्थित कस्बे के चारों ओर कई मीलों के घेरे में किसी भी पशुपक्षी की हत्या करने का निषेध है। हज-काल में हज करने वालों को मद्य-मांस का भी सर्वथा त्याग जरूरी है। इस्लाम में आध्यात्मिक साधना में मांसाहार पूरी तरह वर्जित है, जिसे तकें हैवानात (जानवर से प्राप्त वस्तु का त्याग) कहते हैं।

डॉ. कामता प्रसाद लिखते हैं ‘म. जरदस्त ने ईरान में पशुबलि का विरोध कर अहिंसा की प्राणप्रतिष्ठा की थी, ईरान के शाहदरा के पाषाणों पर अहिंसा का आदेश अंकित कराया था। तखतेजमशेद नामक स्थान पर एक लेख आज भी मौजूद हैं।

आज भारत में भी ऐसे अनेक उदहारण हैं। कर्नाटक राज्य में गुलबर्गा में अल्लन्द जाने के मार्ग में चौदहवीं शताब्दी में मशहूर दरवेश वाजा वन्दानवाज गौसूदराज के समकालीन दरवेश हजरत शारुकुद्दीन की मजार के आगे लिखा है- ‘‘यदि तुमने मांस खाया है तो मेहरबानी कर अन्दर मत आओ’’

इसके अलावा कई मुस्लिमसम्राटों ने जैनों के दशलक्षण-पर्युषण पर्व पर कत्लखानों तथा मांस की दुकानों को बन्द रखने के आदेश भी दिये हैं। जिसके प्रमाण मौजूद हैं।

सारांश के रूप में हम यह कह सकते हैं कि संसार की प्रत्येक धर्म, संस्कृति, सभ्यताएं और दर्शन सदा से दूसरे को प्रभावित करते रहे हैं। भगवान् महावीर के अहिंसावादी आचार-विचार से इस्लाम धर्म भी काफी प्रभावित हुआ। कुरआन की आयतों में तो अहिंसा, जीवदया, करुणा का प्रतिपादन तो था ही, साथ ही उदारवादी तथा व्यापक सोच रखने वाले इस्लामिक सूफियों और दार्शनिकों को जब भगवान् महावीर की परम्परा में इन अच्छाइयों का उत्कृष्ट स्वरूप दिखाई दिया तो उन्होंने उन सदगुणों को ग्रहण किया।

 

सहायक ग्रन्थ –

अहिंसा दर्शन : एक अनुचिंतन – डॉ.अनेकांत कुमार जैन ,प्रकाशक –श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ ,नई दिल्ली -16

[1] कुरआन मजीद, पृ. ४२४

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