प्राचीन अयोध्या का अज्ञात इतिहास
‘अयोध्या एक सनातन शाश्वत भूमि है ,न कभी उसकी उत्पत्ति हुई है और न ही कभी उसका नाश होता है’- यह एक प्राचीन मान्यता है,जिसके बारे में लगभग यही बातें हम अपनी दादी नानी के मुख से सुनते आ रहे हैं |हम तो वर्तमान सन्दर्भ में भी बस इस्तना ही जानते हैं कि अयोध्या मतलब श्री राम |लेकिन इसे जो शाश्वत भूमि कहा है तो इसका मतलब तो यही हुआ न कि श्री राम और दशरथ से पूर्व भी यह नगरी एक उच्चतम सभ्यता की ऐतिहासिक रूप से गवाह है | आइये ,हजारों वर्ष पूर्व लिखे गए भारत के प्राचीन शास्त्रों और मनीषियों की दृष्टि से अयोध्या की आभा और उसके वैभव को महसूस करने की कोशिश करते हैं |
प्राकृत भाषा के प्राचीन साहित्य में अयोध्या और राम
प्राचीन जैन साहित्य में धर्म नगरी अयोध्या का उल्लेख कई बार हुआ है ।जैन महाकवि विमलसूरी(दूसरी शती )प्राकृत भाषा में पउमचरियं लिखकर रामायण के अनसुलझे रहस्य का उद्घाटन करके भगवान् राम के वीतरागी उदात्त और आदर्श चरित का और अयोध्या का वर्णन करते हैं तो प्रथम शती के आचार्य यतिवृषभ अपने तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ में अयोध्या को कई नामों से संबोधित करते हैं । जैन साहित्य में राम कथा सम्बन्धी कई अन्य ग्रंथ लिखे गये, जैसे रविषेण कृत ‘पद्मपुराण’ (संस्कृत), महाकवि स्वयंभू कृत ‘पउमचरिउ’ (अपभ्रंश) तथा गुणभद्र कृत उत्तर पुराण (संस्कृत)। जैन परम्परा के अनुसार भगवान् राम का मूल नाम ‘पद्म’ भी था।
हम सभी को प्राकृत में रचित पउमचरियं अवश्य पढ़नी चाहिए । इसके एक प्रेरक मार्मिक प्रसंग को यहाँ उल्लेखित करना चाहता हूँ । आपको याद होगा राजा दशरथ बैरागी प्रकृति के थे ,वे प्रव्रज्या ग्रहण कर रहे थे ,तभी कैकई वाला कथानक सामने आया और राम को राजा न बना कर भरत को राज्य सौंपने का निर्णय किया गया । भरत पहले से ही वैरागी प्रकृति के थे ,पिताजी ने जब उनसे कहा कि अभी तुम गृहस्थ धर्म का पालन करो,परंपरा से वह भी मुक्ति का हेतु है ,अतः राजपाठ संभालो तब अपने पिता को भरत ने जो उत्तर दिया उसने सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति के आध्यात्मिक उत्कर्ष का उद्घाटन कर दिया –
जइ लहइ मुत्तिसोक्खं, पुरिसो गिधम्मसंठिओ सन्तो।तो कीस मुञ्चसि तुम, गेहं संसारपरिभीओ ? ॥
भरत ने दशरथ से कहा कि यदि गृहधर्म में स्थित हो करके भी पुरुष मुक्ति सुख प्राप्त कर सकता है तो फिर संसार से डरकर आप गृह का त्याग क्यों करते हो ?
यह कोई साधारण घटना नहीं थी । इस तरह के तमाम प्रसंग आपको पूरे ग्रंथ में भरे मिलेंगे । इतना ही नहीं प्राकृत कवियों ने सिर्फ राम का चरित ही नहीं बल्कि सीता का चरित भी लिखा है । कवि भुवनतुंगसूरि ने सीयाचरियं तथा रामलक्खणचरियं भी प्राकृत में लिखा था ।
सीयाचरियं में कवि ने कहा कि जो शत्रु बल से न जीती जा सके वह अयोद्धा नाम की श्रेष्ठ नगरी है-
अहसत्तुबल-अउज्झा अउज्झनामेण पुरवरी अत्थि ।(27)
तुलसी दास भी थे प्राकृत कवियों के दीवाने
बाद में तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में प्राकृत ,अपभ्रंश में रामायण लिखने वाले सभी कवियों को कवि वंदना के रूप में प्रणाम भी किया है ,निश्चित रूप से उन्होंने रामचरित मानस की रचना से पूर्व उन ग्रंथों का स्वाध्याय किया था –
जे प्राकृत कबि परम सयाने ।भाषाँ जिन्ह हरि चरित बखाने ॥
भए जे अहहिं जे होइहहिं आगें ।प्रनवउँ सबहि कपट सब त्यागें ॥
भावार्थ -जो बड़े बुद्धिमान प्राकृत कवि हैं, जिन्होंने भाषा में हरि चरित्रों का वर्णन किया है, जो ऐसे कवि पहले हो चुके हैं, जो इस समय वर्तमान हैं और जो आगे होंगे, उन सबको मैं सारा कपट त्याग कर प्रणाम करता हूँ।- श्रीरामचरितमानस (बालकाण्ड )
तुलसीदास और बनारसीदास
यही तुलसीदास जी हिंदी साहित्य में प्रथम आत्मकथा ‘अर्धकथानक’ लिखने वाले जैन विद्वान् कवि बनारसीदास जी के बहुत बड़े प्रशंसक थे । वे उनकी रचनाओं से बहुत प्रभावित थे । तुलसीदास जी ने रामचरितमानस लिखकर पंडित बनारसीदास जी को आगरा में दिखाई और उनका अभिमत चाहा तो कविवर बनारसीदास जी ने अपने आध्यात्मिक अंदाज़ में एक छंद में बांध कर रामायण लिखकर अपना अभिमत व्यक्त किया था ।
कविवर बनारसीदास जी द्वारा रामायण विषयक छंद आज सभी को अवश्य पढ़ना चाहिए। वह छंद इस प्रकार है –
विराजै ‘रामायण’ घटमाहिं।
मरमी होय मरम सो जाने, मूरख मानै नाहिं।।टेक।।
आतम ‘राम’ ज्ञान गुन ‘लछमन’, ‘सीता’ सुमति समेत।
शुभोपयोग ‘वानरदल’ मंडित, वर विवेक ‘रण खेत’ ।।१।।
ध्यान ‘धनुष टंकार’ शोर सुनि, गई विषय दिति भाग।
भई भस्म मिथ्यामत ‘लंका’, उठी धारणा ‘आग’ ।।२।।
जरे अज्ञान भाव ‘राक्षसकुल’, लरे निकांछित ‘सूर।
जूझे राग-द्वेष सेनापति, संसै ‘गढ़’ चक चूर।।३।।
बिलखत ‘कुम्भकरण’ भव विभ्रम, पुलकित मन ‘दरयाव।
थकित उदार वीर ‘महिरावण’, ‘सेतुबंध’ सम भाव।।४।।
मूर्छित ‘मंदोदरी’ दुराशा, सजग चरन ‘हनुमान’।
घटी चतुर्गति परणति ‘सेना’, छुटे छपक गुण ‘बान’ ।।५।।
निरखि सकति गुन चक्र सुदर्शन’ उदय ‘विभीषण’ दान।
फिरै ‘कबंध’ मही ‘रावण’ की, प्राण भाव शिरहीन।।६।।
इह विधि सकल साधु घट, अन्तर होय सहज ‘संगाम’।
यह विवहार दृष्टि ‘रामायण’ केवल निश्चय ‘राम’।।७।।
श्री राम की कामना
श्री राम की मृत्यु को लेकर आज भी कोई स्पष्ट अवधारणा नहीं है । जैन परंपरा यह मानती है कि श्री राम ने अंत में जैन दीक्षा लेकर मुनि बन महाराष्ट्र के मांगीतुंगी पर्वत पर तपस्या की और मोक्ष प्राप्त किया । वहाँ उनकी तपस्या युक्त हज़ारों वर्ष प्राचीन प्रतिमा भी है । पंडित बनारसीदास जी के समकालीन जैन मनीषी पंडित टोडरमल जी ने एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ लिखा है – मोक्षमार्ग प्रकाशक । उसमें उन्होंने योगवशिष्ठ ग्रंथ का जो उद्धरण दिया है उससे भी इस बात की पुष्टि होती है कि श्री राम अंत में जिनेन्द्र भगवान् की शरण में दीक्षित हो गए थे । योगवशिष्ठ में राम की हार्दिक कामना व्यक्त की गई है –
नाहं रामो न मे वांछा,भावेषु च न मे मन: |
शान्तमास्थातुमिच्छामि,स्वात्मन्येव जिनो यथा ||
-योगवाशिष्ठ,15
अर्थ- मैं राम नहीं हूँ और मेरी किसी भी वस्तु में कोई वांछा नहीं है, मैं तो केवल अपनी आत्मा में ही पूरी तरह शांति से स्थिर हो जाना चाहता हूँ, जैसे कि जिनेन्द्र होते हैं।
अयोध्या के अनेक नाम और जैन तीर्थंकरों की जन्मभूमि
ज्ञातव्य है कि शास्त्रों में अयोध्या को अयुध्या ,विनीता नगरी,साकेत,सुकौशल,रामपुरी और विशाखा आदि कई नामों से पुकारा गया है । जैन परंपरा में यह एक शाश्वत तीर्थ है ।
जैन परंपरा के अनुसार यह वर्तमान के 24 में से पांच तीर्थंकरों की जन्मभूमि है बस इतना ही नहीं है ,बल्कि यह अनंतानंत तीर्थंकरों की जन्मभूमि भी है और प्रत्येक चतुर्थकाल में चौबीसों तीर्थंकर प्रभु नियम से अयोध्या में ही जन्म लेते हैं । वर्तमान के हुंडावसर्पिणी काल के दोष के कारण प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ,द्वितीय तीर्थंकर अजितनाथ,चतुर्थ तीर्थंकर अभिनन्दन नाथ ,पंचम तीर्थंकर सुमतिनाथ एवं चौदहवें तीर्थंकर अनंतनाथ इन पांच की ही आज जन्मभूमि है ।
आचार्य यतिवृषभ (प्रथम शती )लिखते हैं –
जादो हु अवज्झाए ,उसहो मरुदेवि-णाभिराएहिं ।
चेत्तासिय-णवमीए,णक्खत्ते उत्तरासाढे ।। (तिलोय.4/533)
अर्थात् ऋषभनाथ तीर्थंकर अयोध्या नगरी में ,मरूदेवी माता एवं नाभिराय पिता से चैत्र कृष्ण नवमी को उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में उत्पन्न हुए ।
माघस्स सुक्क पक्खे ,रोहिणि-रिक्खम्मि दसमि-दिवसम्मि ।
साकेदे अजिय-जिणो, जादो जियसत्तु-विजयाहिं ।।(तिलोय.4/534)
अर्थात् अजित जिनेन्द्र साकेत नगरी में पिता जितशत्रु एवं माता विजया से माघ शुक्ला दसमी के दिन रोहिणी नक्षत्र में उत्पन्न हुए ।
माघस्स बारसीए ,सिदम्मि पक्खे पुणव्वसू-रिक्खे ।
संवर-सिद्धत्थाहिं ,साकेदे णंदणो जादो ।।(तिलोय.4/536)
अर्थात् अभिनंदन स्वामी साकेतपुरी में पिता संवर और माता सिद्धार्था से माघ शुक्ला द्वादशी को पुनर्वसु नक्षत्र में उत्पन्न हुए ।
मेघप्पहेण सुमईं साकेदपुरम्मि मंगलाए य ।
सावण -सुक्केयारसि-दिवसम्मि मघासु संजणिदो ।।(तिलोय.4/537)
अर्थात् सुमतिनाथ जी साकेतपुरी में पिता मेघसम और माता मंगला से श्रावण शुक्ला एकादसी के दिन मघा नक्षत्र में उत्पन्न हुए ।
जेट्ठस्स बारसीए ,किण्हाए रेवदीसु य अणंतो ।
साकेदपुरे जादो ,सव्वजसा-सिंहसेणेहिं ।।(तिलोय.4/546)
अर्थात् अयोध्यापुरी में पिता सिंहसेन और माता सर्वयशा से ज्येष्ठ कृष्णा द्वादशी को रेवती नक्षत्र में अवतीर्ण हुए ।
आचार्य संघदासगणि(3शती ई.) ने प्राकृत भाषा में एक विशाल गद्यात्मक कथाकृति ‘वसुदेवहिंडी’ में उल्लेख किया है –
‘इहं सुरासुरिंद -विंदवंदियम-चलणारविंदो उसभो नाम पढमो राया जगप्पियामहो आसी |तस्स पुत्तसयं|दुवे पहाणा- भरहो बाहुबली य |उसभसिरी पुत्तसयस्स पुरसयं जणवयसयं च दाऊण पव्वइओ |तत्थ भरहो भरहवासचूडामणी,तस्सेव नामेण इहं ‘भरहवासं’ ति पवुच्चति,सो विणीयाहिवती | बाहुबली हत्थिणाउर –तक्खसिलासामी |’
अर्थ – यहाँ सुरासुर वन्दित चरणारविंद वाले जगत्पितामह ऋषभ नाम के प्रथम राजा थे | उनके सौ पुत्र थे ,जिनमें दो मुख्य थे : भरत और बाहुबली | ऋषभ श्री अपने सौ पुत्रों को सौ नगर और सौ जनपद देकर प्रव्रजित हो गए | उन पुत्रों में भरत भारतवर्ष के चूड़ामणि थे | उनके ही नाम पर यह देश भारत वर्ष कहा जाता है | वे विनीता (अयोध्या)के अधिपति थे और बाहुबली हस्तिनापुर तक्षशिला के स्वामी |
गणिनी आर्यिका ज्ञानमती जी ‘महातीर्थ अयोध्या’ नामक पुस्तक में लिखती हैं कि अगणित महापुरुषों ने इस अयोध्या को पवित्र किया है ।
आदिपुराण के बारहवें पर्व में आचार्य जिनसेन(नौवीं शती ) ने अयोध्या नगरी का बड़ा वैभवशाली विस्तृत वर्णन किया है ,उसकी एक झलक इस श्लोक में मिलती है –
संचस्करुश्च तां वप्रप्राकारपरिखादिभिः |
अयोध्यां न परं नाम्ना गुणेनाप्यरिभिः सुराः ||(12/76)
देवों ने उस नगरी को वप्र(धूलि के बने हुए छोटे कोट ),प्राकार(चार मुख्य दरवाजों से सहित ,पत्थर के बने हुए मजबूत कोट )और परिखा आदि से सुशोभित किया था |उस नगरी का नाम अयोध्या था |वह केवल नाम मात्र से अयोध्या नहीं थी बल्कि गुणों से अभी अयोध्या थी |कोई भी शत्रु जिसे न जीत सके उसे अयोध्या कहते हैं – अरिभिः योद्धुं न शक्या |
अजमेर में सोने की अयोध्या
राजस्थान के अजमेर में सोनी जी की नाशियाँ जैन मंदिर,सिद्धकूट चैत्यालय में अयोध्या नगरी की स्वर्ण रचना बनी है जिसको देखने पर्यटक देश विदेश से आते हैं ।इस मंदिर में तीर्थंकर ऋषभदेव की प्रतिमा 1865 में सुप्रसिद्ध जैन विद्वान् पंडित सदासुखदास जी के निर्देशन में जैन श्रेष्ठी रायबहादुर सेठ मूलचंद एवं नेमीचंद सोनी जि के द्वारा विराजमान की गई थी |उसी समय से यहाँ सोने की अयोध्या नगरी का निर्माण आदिपुराण के अयोध्या नगरी के वैभवशाली वर्णन के अनुसार प्रारंभ किया गया , 1895 में यह कार्य पूरा हुआ और इसका नाम स्वर्ण ,सोनी या सोने का मंदिर पड़ गया |
वर्तमान अयोध्या के जैन केंद्र
पंडित बलभद्र जी ने भारत के दिगंबर जैन तीर्थ पुस्तक के भाग 1 में अयोध्या में वर्तमान के जैन मंदिरों का विस्तृत वर्णन किया है |
जिन पांच तीर्थंकरों ने यहाँ जन्म लिया उनके स्मरण स्वरूप यहाँ उनकी टोंक ,मंदिर,मूर्तियां और चरण चिन्ह स्थापित हैं तथा दर्शनार्थी उनका प्रतिदिन दर्शन पूजन और अभिषेक करते हैं ।
वर्तमान में यहाँ कटरा स्थित दिगम्बर जैन मंदिर में दूसरे तीर्थंकर अजितनाथ जी,चौथे तीर्थंकर अभिनंदननाथ जी और पांचवें तीर्थंकर सुमतिनाथ जी की टोंक तथा मंदिर है।
सरयू नदी के तट पर चौदहवें तीर्थंकर अनंतनाथ का मंदिर (टोंक) तथा है । अयोध्या में ही बक्सरिया टोले में मस्जिद के पीछे तीर्थंकर आदिनाथ का एक छोटा जैन मंदिर है जहां उनकी ही टोंक स्थापित है ।
इतिहासकार मानते हैं कि 1194 ई. में मुहम्मद गोरी के भाई मखदूम शाह जूरन गोरी ने अयोध्या पर आक्रमण किया था । उस समय यहाँ स्थित एक विशाल ऋषभदेव जैन मंदिर को तोड़कर उसने मस्जिद का निर्माण करवाया था ।
यह कथानक प्रसिद्ध है कि कालांतर में जैनों ने जब मुगल शासक नबाब फैजुद्दीन से फ़रियाद की कि यह हमारा मंदिर था ,तब उसने प्रमाण मांगा और यहां खुदाई करने पर एक स्वस्तिक,नारियल और एक चौमुखा दीपक मिला ,तब उसने थोड़ी जगह दे दी । जैन लोगों ने अनुमति लेकर पास में एक छोटा मंदिर बनवा कर वहाँ ऋषभदेव के चरण चिन्ह स्थापित करवा दिए ।यहां के कटरा मुहल्ले में भी एक टोंक है जहाँ यहीं जन्म लेने वाले ऋषभदेव के पुत्र भरत और बाहुबली के चरण चिन्ह स्थापित हैं ।
सन् 1330 तक अयोध्या में अनेक जैन मंदिर हुआ करते थे ।कटरा मंदिर में 1952 में तीर्थंकर आदिनाथ ,भगवान् भरत और भगवान् बाहुबली की तीन मूर्तियां विराजमान की गईं थीं। सन् 1965 में रायगंज में रियासती बाग के मध्य एक विशाल मंदिर बना है जिसमें 31 फुट ऊंची तीर्थंकर ऋषभदेव की प्रतिमा विराजमान हैं ।
आर्यिका गणिनी ज्ञानमती माता जी की प्रेरणा से 1994 को यहाँ महामस्तकाभिषेक का आयोजन करवाया और तीन चौबीसी मंदिर और समवशरण मंदिर का नवीन निर्माण भी करवाया गया ।इन्हीं की प्रेरणा से इस जैन तीर्थ का बहुत विकास हो रहा है |यहाँ विश्वशांति जिन मंदिर ,भगवान् ऋषभदेव सर्वतोभद्र जन्म महल , तीस चौबीसी जिनमंदिर ,भगवान् भरत जिन मंदिर तथा 84 फुट ऊँची तीन लोक की रचना प्रस्तावित है |
तीर्थंकर ऋषभदेव को स्मृति में यहाँ शासन के पर्यटन विभाग ने राजघाट के राजकीय उद्यान का नाम भगवान् श्री ऋषभदेव उद्यान रखा है जिसमें माता की ही प्रेरणा से तीर्थंकर ऋषभदेव की 21 फुट विशाल धवल पद्मासन प्रतिमा विराजमान की गई है तथा अवध विश्वविद्यालय में श्री ऋषभदेव जैन शोधपीठ भी स्थापित की गई है |अयोध्या में ही एक भगवान् ऋषभदेव नेत्र चिकित्सालय भी चलता है |
29 अगस्त 2003 में टाइम्स ऑफ इंडिया में ASI की एक रिपोर्ट का प्रकाशन हुआ था जिसके अनुसार यहाँ खुदाई में जैन मूर्तियां प्राप्त हुईं थीं ।
प्रधानमंत्री मोदी जी और मुख्यमंत्री योगी जी के अथक परिश्रम से आज अयोध्या नगरी पुनः जीवंत हो उठी है । आशा है वहाँ की प्राचीन जैन संस्कृति भी पुनः अपने गौरव को प्राप्त करेगी –
धण्णो णव अयोज्झा उसह-भरह-बाहुबली-अजिय-सुमइ ।
पवित्तो खलु जम्मभूमि अहिणंदण-अणंत-रामो य ।।
अर्थात् यह नई अयोध्या धन्य है जो प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव,उनके पुत्र भरत (जिनके नाम पर देश का नाम भारत हुआ )तथा बाहुबली ,द्वितीय तीर्थंकर अजितनाथ,चतुर्थ तीर्थंकर अभिनन्दननाथ,पंचम तीर्थंकर सुमतिनाथ ,चौदहवें तीर्थंकर अनंतनाथ तथा भगवान् श्री राम की पवित्र जन्मभूमि है ।