Classical language Prakrit :शास्त्रीय भाषा का दर्जा , प्राकृत भाषा और हमारा कर्त्तव्य

Classical language Prakrit :शास्त्रीय भाषा का दर्जा , प्राकृत भाषा और हमारा कर्त्तव्य

प्रो अनेकांत कुमार जैन[1]

मा.संपादक- पागद-भासा(प्राकृत भाषा का प्रथम अखबार )

प्राकृत विद्या भवन ,A93/7A,छत्तरपुर एक्सटेंशन,नई दिल्ली-74

9711397716

 वर्तमान में भारत सरकार ने ‘प्राकृत’ भाषा को शास्त्रीय भाषा Classical language Prakrit का दर्जा प्रदान किया है ,यह भारतीय भाषा और संस्कृति के संरक्षण में एक अभूतपूर्व कदम है |

भारत सरकार ने 12 अक्टूबर 2004 को ‘शास्त्रीय भाषा’ Classical language Prakrit नामक एक नई श्रेणी बनाई थी। इसके अंतर्गत सरकार ने सर्वप्रथम तमिल भाषा को उसके एक हज़ार साल से ज़्यादा पुराने इतिहास, मूल्यवान माने जाने वाले ग्रंथों और साहित्य तथा मौलिकता के आधार पर शास्त्रीय भाषा घोषित किया। नवंबर 2004 में, साहित्य अकादमी के तहत संस्कृति मंत्रालय द्वारा शास्त्रीय भाषा Classical language Prakrit का दर्जा दिए जाने के लिए प्रस्तावित भाषाओं की पात्रता की जांच करने के लिए एक भाषा विशेषज्ञ समिति (LEC) का गठन किया गया था।जिसमें उन मानकों को तय किया गया जिनके आधार पर किसी भाषा को शास्त्रीय भाषा स्वीकृत किया जायेगा| 2005 को जारी एक प्रेस  विज्ञप्ति के अनुसार, शास्त्रीय भाषा घोषित करने के लिए निम्नलिखित मानदंड रेखांकित किए गए थे-

  • उस भाषा में प्राचीन ग्रंथ या दर्ज इतिहास होना चाहिए जो 1,500-2000 वर्षों से अधिक पुराना हो।
  • उस भाषा का प्राचीन साहित्य या ग्रंथों का एक महत्वपूर्ण संग्रह होना चाहिए ,जिसे बोलने वालों की पीढ़ियों द्वारा संरक्षित और मूल्यवान माना गया हो ।
  • उस भाषा में एक अलग और मूल साहित्यिक परंपरा होनी चाहिए, जो किसी अन्य भाषण समुदाय से प्राप्त न हो।
  • शास्त्रीय भाषा और उसके आधुनिक रूपों के बीच स्पष्ट अंतर होना चाहिए।

वर्ष 2024 में किसी भाषा को शास्त्रीय घोषित करने के मानदंडों में संशोधन किया गया-

  • जिसके तहत“ज्ञान ग्रंथ (किसी अन्य भाषा समुदाय से उधार न ली गई मूल साहित्यिक परंपरा की उपस्थिति”) को “ज्ञान ग्रंथ (विशेष रूप से कविता, पुरालेखीय और शिलालेखीय साक्ष्य के साथ गद्य ग्रंथ”) द्वारा प्रतिस्थापित किया गया।

अतः यह माना गया कि भारतीय  शास्त्रीय भाषाएँ समृद्ध ऐतिहासिक विरासत, गहन साहित्यिक परंपराओं और विशिष्ट सांस्कृतिक विरासत वाली भाषाएँ हैं। इन भाषाओं ने इस क्षेत्र के बौद्धिक और सांस्कृतिक विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।उनके ग्रंथ साहित्य, दर्शन और धर्म जैसे विविध क्षेत्रों में बहुमूल्य अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं।

प्रसन्नता की बात है कि जैन आगमों की भाषा प्राकृत भाषा इन सभी मानदंडों को पूरा करती है |

2005 में संस्कृत को शास्त्रीय भाषा घोषित किया गया। धीरे-धीरे, 2008 में तेलुगु और कन्नड़, और 2013 और 2014 में मलयालम और ओडिया भी इस सूची में शामिल हो गए। इसके लिए संबंधित भाषा वाले राज्यों की तरफ से प्रस्ताव भेजना होता है। इसके बाद साहित्य कला अकादमी के तहत भाषा विशेषज्ञ समिति की तरफ से प्रस्ताव पर विचार के बाद मान्यता देने की प्रक्रिया पूरी होती है।वर्तमान में 3 अक्टूबर 2024 को केंद्र  सरकार ने प्राकृत, मराठी, पाली, असमिया और बंगाली को शास्त्रीय भाषा का दर्जा दिया है, जिससे उनकी समृद्ध विरासत को मान्यता मिली है। ये शास्त्रीय भाषाएं स्वतंत्र परंपराओं और समृद्ध साहित्यिक इतिहास वाली प्राचीन भाषाएं हैं जो विभिन्न साहित्यिक शैलियों और दार्शनिक ग्रंथों को प्रभावित करती रहती हैं। मंत्रिमंडल की नवीनतम मंजूरी के साथ, भारत में मान्यता प्राप्त शास्त्रीय भाषाओं की कुल संख्या अब 11 हो गई है।

शास्त्रीय दर्जा मिलने से लाभ -Classical language Prakrit 

शास्त्रीय भाषाएं भारत की गहन और प्राचीन सांस्कृतिक विरासत की संरक्षक के रूप में काम करती हैं, जो प्रत्येक समुदाय के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक मील का पत्थर होती हैं । शास्त्रीय भाषा के रूप में भाषाओं को शामिल करने से रोजगार के महत्वपूर्ण अवसर पैदा होंगे, खासकर अकादमिक और रिसर्च के क्षेत्र में। इसके अलावा, इन भाषाओं के प्राचीन ग्रंथों के संरक्षण, दस्तावेजीकरण और डिजिटलीकरण से संग्रह, अनुवाद, प्रकाशन और डिजिटल मीडिया में रोजगार के अवसर पैदा होंगे।शास्त्रीय भाषाओं को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने 2020 में संस्कृत भाषा के लिए तीन केंद्रीय विश्वविद्यालय स्थापित किए थे। प्राचीन तमिल ग्रंथों के अनुवाद की सुविधा, शोध को बढ़ावा देने और यूनिवर्सिटी के छात्रों के लिए पाठ्यक्रम प्रदान करने के लिए केंद्रीय शास्त्रीय तमिल संस्थान की स्थापना की गई थी। शास्त्रीय भाषाओं के अध्ययन और संरक्षण के लिए, मैसूर में केंद्रीय भारतीय भाषा संस्थान के तत्वावधान में शास्त्रीय कन्नड़, तेलुगु, मलयालम और ओडिया में अध्ययन के लिए उत्कृष्टता केंद्र स्थापित किए गए थे | किसी भाषा को शास्त्रीय घोषित कर दिया जाता है, तब उसे उस भाषा के अध्ययन के लिये उत्कृष्टता केंद्र स्थापित करने हेतु वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है और साथ ही प्रतिष्ठित विद्वानों के लिये राष्ट्रीय और अन्तराष्ट्रीय  पुरस्कार प्राप्त करने के मार्ग भी खुल जाते है।इसके अतिरिक्त, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से अनुरोध किया जा सकता है कि वह केंद्रीय विश्वविद्यालयों से शुरुआत करते हुए शास्त्रीय भाषाओं के विद्वानों के लिये शैक्षणिक पीठ स्थापित करे ।

प्राकृत भाषा का महत्त्व –Classical language Prakrit 

                प्राकृत भाषा,व्याकरण और साहित्य का इतिहास ढाई हज़ार वर्ष से भी ज्यादा पुराना है ,वैदिक काल में भी यह जन भाषा के रूप में विख्यात रही है | भगवान् महावीर और महात्मा बुद्ध ने अपने उपदेशों का माध्यम इसी जन भाषा को बनाया था ,महात्मा बुद्ध ने जिस प्राकृत भाषा में अपने उपदेश दिए उसे पालि कहा जाता है और पालि में निबद्ध ग्रन्थ त्रिपिटक कहलाते हैं  | भगवान् महावीर के सम्पूर्ण उपदेश अर्धमागधी प्राकृत और शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध हैं जिन्हें जैन आगम कहा जाता है | महाराष्ट्री,शौरसेनी,मागधी आदि प्राकृत भाषा में अन्यान्य नाटक,,पुराण ,महाकाव्य,मुक्तक काव्य,कथायें और अन्य साहित्य प्रथम शती से लेकर बारहवीं तेरहवीं शती तक उपलब्ध होते हैं | भारत के प्राचीनतम शिलालेखों की भाषा प्राकृत रही है | प्राकृत भाषा से देश की कई भाषाओँ ,उपभाषाओं और बोलियों का विकास हुआ है |वर्तमान में इस भाषा में समाचार पत्र और शोधपत्रिकाओं का प्रकाशन भी होता है |जैन परंपरा में समाज में आबाल गोपाल प्राकृत मन्त्र , गाथा ,गीत,भजन,स्तोत्र,स्तुति,प्रतिक्रमण,अभिवादन आदि बोलने की भी सुदीर्घ परंपरा आज भी प्रायोगिक रूप से विद्यमान है | अनेक संत और विद्वान् प्राकृत भाषा में संभाषण और प्रवचन भी करते हैं |

शास्त्रीय दर्जा से लाभ कैसे उठायें – Classical language Prakrit 

केंद्र सरकार ने प्राकृत भाषा को शास्त्रीय भाषा के दर्जे की घोषणा की तो जैन समाज में अधिकांश लोगों को समझ में ही नहीं आया कि ये क्या हुआ ? मेरे पास जैन समाज के एक बड़े पदाधिकारी जी और एक श्वेताम्बर मुनि जी का का फोन आया ,उन्होंने पूछा इससे समाज को क्या लाभ है ? मैंने उनसे पलट कर पूछा कि आप तो समाज के प्रमुख हैं ,आप बतलाइए आपको क्या लाभ चाहिए ? लाभ का मतलब क्या होता है ? इस पर वे यह नहीं बता पाए कि हमें क्या लाभ चाहिए ?क्यों कि न कोई विज़न है और न कोई मिशन है | उन्हें तो यह समझाने में ही बहुत वक्त लग गया कि प्राकृत भाषा क्या चीज है ? यही कारण है कि कुछ जागृति लाने के लिए यह लेख मैं अपनी समझ से यह सोचकर लिख रहा हूँ कि शायद ऐसे कर्णधार भी इस आलेख को पढ़ लें |

यद्यपि प्राकृत भाषा जनभाषा रही है और उससे भारत की सामान्य साहित्यिक परंपरा भी पूरी तरह से जुडी रही है किन्तु भगवान् महावीर की वाणी इसी भाषा में निबद्ध होने से जैन धर्म ,संस्कृति और समाज की विशेष भावना इस भाषा से स्वाभाविक रूप से जुडी है | यही कारण है इस भाषा को सरकारी संरक्षण न के बराबर प्राप्त होने के बाद भी जैन संतों और देश विदेश के विद्वानों ने अपने बलबूते पर समाज के आर्थिक सहयोग से इसे आज तक संरक्षण प्रदान किया है | किन्तु अब इसे शास्त्रीय भाषा का दर्जा मिल जाने के कारण भारत सरकार की भाषाओँ के संरक्षण और संवर्धन की रीति और नीति में सम्मिलित होने से इसे राष्ट्रिय ही नहीं बल्कि अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व प्राप्त होने का मार्ग सुगम हो गया है | भविष्य में भारत सरकार इस भाषा के लिए पृथक से सरकारी संस्थान,अकादमी आदि स्थापित करेगी,इस भाषा के लिए अनुदान जारी करेगी ,तब उसका लाभ उठाने के लिए समाज को भी अपनी तरफ से अभी से तैयारी कर लेनी चाहिए ताकि वे सरकारी योजनाओं का लाभ उठा सके | मेरे विचार से निम्नलिखित कदम समाज को भी उठाने चाहिए –

  • प्रत्येक शहर में प्राकृत जैनागम शोधसंस्थान तथा पुस्तकालय ,पाण्डुलिपि संरक्षण केंद्र की स्थापना करें और उसका पंजीयन अवश्य करवाएं |
  • मंदिर,स्थानक आदि स्थलों पर प्राकृत पाठशालाओं की स्थापना अवश्य करें | पूर्व से जो पाठशालाएं संचालित हैं उनके नाम के साथ ‘प्राकृत’ शब्द जोड़ दें ,जैसे आचार्य शान्तिसागर जैन प्राकृत पाठशाला , वीतराग विज्ञान जैन प्राकृत पाठशाला आदि |भविष्य में ये पाठशालाएं सरकारी अनुदान भी प्राप्त करने में अर्ह होंगी |
  •  प्राकृत भाषा के प्रशिक्षण के लिए स्वतंत्र प्राकृत शिविरों का आयोजन करें |कोई भी शिविर आयोजित करें उसमें कोई प्राकृत का ग्रन्थ पढ़ाने की एक कक्षा लगा कर उस शिविर के नाम में ‘प्राकृत’ जोड़ दें | जैसे ‘जैनदर्शन; ‘समयसार’,’द्रव्य संग्रह’,’उत्तराध्ययन’,गोम्मटसार,वीतराग विज्ञान,श्रावक संस्कार शिविर आदि  शिविर हैं तो उनके नाम में ‘प्राकृत’ जोड़ दें ,क्यों कि उस शिविर में या तो प्राकृत के ग्रन्थ पढ़ा रहे हैं या प्राकृत आगम में प्रतिपादित श्रावकाचार या ज्ञान का प्रशिक्षण दे ही रहे हैं |
  • संस्थाओं के लोगो (ध्येय वाक्य)प्राकृत आगमों में से ही रखें |
  • जनगणना में भाषा के कॉलम में अपनी मातृभाषा या अन्य भाषा के रूप में ‘प्राकृत’भाषा अवश्य लिखवाएं |
  • संस्थाओं में धार्मिक के साथ साथ शैक्षणिक और अकादमिक गतिविधियों को बढ़ावा दें |
  • जैन समाज द्वारा संचालित शैक्षणिक संस्थाओं में प्राकृत भाषा पढना और पढ़ाना अनिवार्य कर दें |प्रार्थना में प्राकृत आगम की गाथाएं पढ़ी जाएँ |
  • जैन बन्धु या जैन समाज द्वारा संचालित महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में एक ‘प्राकृत जैन आगम अध्ययन एवं अनुसंधान केंद्र’ की स्थापना विधिवत् अभी से कर लें |
  • अपने शहर में स्थापित सरकारी विश्वविद्यालय के कुलपति को प्राकृत भाषा और जैन विद्या विभाग खोलने का प्रस्ताव दें |
  • अपनी राज्य सरकार को प्राकृत भाषा अकादमी खोलने हेतु समाज से प्रस्ताव भेजें |
  • प्राकृत भाषा में निबद्ध आगम ग्रन्थ और साहित्य का प्रकाशन करें |
  • प्राकृत और जैनागम के उपलब्ध विद्वानों की सूची और संपर्क अपने पास अद्यतन रखें |
  • भविष्य के लिए कई तरह की योजनायें पहले से बना कर रखें |
  • प्राकृत भाषा और साहित्य से सम्बंधित ज्ञान विज्ञान और उनके आधुनिक सन्दर्भ से सम्बंधित सेमिनार .संगोष्ठी ,कार्यशाला आदि अवश्य कराएँ तथा उसकी पूरी रिपोर्ट सुरक्षित रखें |

आपके इसी प्रकार के अन्यान्य  कार्यों के आधार पर भविष्य में आप भारत सरकार की  योजनाओं से जुड़कर उनसे वित्तीय अनुदान प्राप्त कर सकते हैं | सभी जानते हैं कि प्राकृत भाषा और जैन विद्या का अध्ययन और अनुसन्धान बहुत श्रम साध्य और व्यय साध्य होता है |अरुचि के कारण समाज से इस हेतु दान के आधार पर इन भाषा और ज्ञान परंपरा को अकादमिक स्तर पर जीवित रखना बहुत कठिन है |सरकार इन कार्यों के लिए करोड़ों का अनुदान देती है किन्तु लेने वाला कोई नहीं होता क्यों कि हम,हमारी संस्थाएं सरकारी शर्तों को पूरा करने में असमर्थ होते हैं | हमारे पास न वैसा इंफ्रास्ट्रक्चर होता है न ऑफिसियल कार्यशैली और न ही पुराने कार्यों का कोई रिकॉर्ड | अन्य समाज के लोग इस कार्य में बहुत व्यवस्थित और प्रोफेशनल होते हैं ,वे इन योजनाओं का लाभ उठा कर सरकारी धन से ही अपने धर्म का ज्ञान विज्ञान संरक्षित और संवर्धित कर लेते हैं | जैन समाज इस विषय में अभी बहुत पिछड़ा है |हमें इस दिशा में बहुत कार्य करने चाहिए ,ये स्थाई और दूरगामी फल और प्रभावना वाले कार्य हैं ,इसमें तत्काल मंच माला सम्मान नाम नहीं मिलता ,लेकिन जिन शासन की बहुत प्रभावना होती है और जैन समाज धर्म संस्कृति साहित्य की जड़ें गहरी बनती हैं |Classical language Prakrit

[1] आचार्य-जैनदर्शन विभाग ,श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय ,नई दिल्ली -११००१६,anekant@slbsrsv.ac.in

2 thoughts on “Classical language Prakrit :शास्त्रीय भाषा का दर्जा , प्राकृत भाषा और हमारा कर्त्तव्य

  1. जय जिनेन्द्र अनेकांतजी। मेरा अध्ययन क्षेत्र प्राकृत से अधिक अपभ्रंश रहा है। मेरा अनुभव है कि अपभ्रंश प्राकृत का ही विकसित रूप है। प्राकृत के सिद्धांत को व्यवहारिक रूप चरित्र काव्यों के माध्यम से अपभ्रंश में प्राप्त हुआ है। भाषा विज्ञान के अनुसार भी प्राकृत और अपभ्रंश भाषा का घनिष्ठ सम्बन्ध है। सोगानी साहब की अपभ्रंश और प्राकृत रचना सौरभ इसका साक्षात प्रमाण है। दूसरा, आचार्य योगिंदुदेव का परमात्मप्रकाश जो स्पष्टतया अपभ्रंश का ही ग्रन्थ है, उसे लोग प्राकृत का ही समझते आ रहे हैं। तो क्यों नहीं हम अपभ्रंश को प्राकृत में ही सम्मिलित कर अपनी साहित्य परंपरा को विकसित दर्शाए। आप योजना बनाइए, आपको अपभ्रंश अकादमी का पूरा सहयोग मिलेगा। जय जिनेन्द्र।

    1. बिलकुल बहुत अच्छा सुझाव है | प्राकृत के ही भेदों में अपभ्रंश भी गिनी जानी चाहिए | इसके साथ उसका भी समुचित विकास होना चाहिए |

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected!