The primordial deity of Indian culture: Tirthankar Rishabhdev.भारतीय संस्कृति के आदिदेव : तीर्थंकर ऋषभदेव

Tirthankar Rishabhdev

The primordial deity of Indian culture: Tirthankar Rishabhdev.

भारतीय संस्कृति के आदिदेव : तीर्थंकर ऋषभदेव Tirthankar Rishabhdev

प्रो. अनेकान्त कुमार जैन,नई दिल्ली 

                  मनुष्य के अस्तित्व के लिए रोटी, कपडा, मकान जैसे पदार्थ आवश्यक हैं, किंतु उसकी आंतरिक सम्पन्नता केवल इतने से ही नहीं हो जाती। उसमें अहिंसा, सत्य, संयम, समता, साधना और तप के आध्यात्मिक मूल्य भी जुडने चाहिए। भगवान् ऋषभदेव Tirthankar Rishabhdev ने भारतीय संस्कृति को जो कुछ दिया है, उसमें असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प इन छह कर्मो के द्वारा उन्होंने जहां समाज को विकास का मार्ग सुझाया वहां अहिंसा, संयम तथा तप के उपदेश द्वारा समाज की आंतरिक चेतना को भी जगाया। इस प्रकार भारतीय संस्कृति को उनका अवदान एकांगी न होकर सर्वागीण और चतुर्मुखी है। भारतीय संस्कृति के आंतरिक पक्ष को जो योगदान उन्होंने दिया, उसकी चर्चा संसार का प्राचीनतम ग्रन्थ आगम-वेद-पुराण सभी करते हैं |

सभी परंपरा में पूज्य

Tirthankar Rishabhdev

देश में दार्शनिक राजाओ की लंबी परम्परा रही है परंतु ऐसा विराट व्यक्तित्व दुर्लभ रहा है जो एक से अधिक परम्पराओं में समान रूप से मान्य व पूज्य रहा हो। भगवान ऋषभदेव Tirthankar Rishabhdev उन दुर्लभ महापुरुषों में से एक हुए हैं। जैन परंपरा के अनुसार काल का न आदि है, न अंत। इतिहास का आलोक तो काल के अनंतवें भाग मात्र को ही आलोकित कर पाता है। काल का जो भाग इतिहास की पकड में नहीं आता, उसे हम प्रागैतिहासिक काल कह देते हैं। ऐसे ही प्रागैतिहासिक काल के एक शलाका पुरुष हैं- ऋषभदेव  जिन्हें इतिहास काल की सीमाओं में नहीं बांध पाता है। किंतु वे आज भी भारत की सम्पूर्ण भारतीयता तथा जन जातीय स्मृतियों में पूर्णत:सुरक्षित हैं। जन-जन की आस्था के केंद्र तीर्थकर ऋषभदेव का जन्म चैत्र शुक्ला नवमी को अयोध्या में हुआ था तथा माघ कृष्णा चतुर्दशी को इनका निर्वाण कैलाशपर्वत से हुआ था। आचार्य जिनसेन के आदिपुराण में तीर्थकर ऋषभदेव के जीवन चरित का विस्तार से वर्णन है।

भागवत पुराण में उन्हें विष्णु के चौबीस अवतारों में से एक माना गया है। वे आग्नीघ्र राजा नाभि के पुत्र थे। माता का नाम मरुदेवी था। दोनो परम्पराएँ उन्हें इक्ष्वाकुवंशी और कोसलराज मानती हैं। जैन परम्परा के चौबीस तीर्थकरों में ये ही ऐसे प्रथम तीर्थकर हैं, जिनकी पुण्य-स्मृति जैनेतर भारतीय वाड्.मय और परंपराओं में भी एक शलाका पुरुष के रूप में विस्तार से सुरक्षित है।

जैन तीर्थकर ऋषभदेव Tirthankar Rishabhdev को अपना प्रवर्तक तथा प्रथम तीर्थकर मानकर पूजा करते ही हैं, किंतु भागवत् भी घोषणा करता है कि नाभि का प्रिय करने के लिए विष्णु ने मरूदेवीके गर्भ से वातरशना ब्रह्मचारी ऋषियों को धर्म का उपदेश देने के लिए ऋषभदेवके रूप में जन्म लिया-

          नाभे: प्रियचिकीर्षया। तदवरोधायने मेरूदेव्यां धर्मान्दर्शयितुकामो वातरशनानां श्रमणानामृषिणां ऊर्ध्वमन्थिनां शुक्लया तनुवावततारा”

(श्रीमद्भागवत 5/3/20)

                    भागवत् के पांचवें स्कंध के पांचवें अध्याय में उस उपदेश का विस्तार से वर्णन है जिसे ऋषभदेव ने दिया था।

Jain University Rishabhdev
Teerthanker Rishabhdev

तीर्थंकर  ऋषभदेव Tirthankar Rishabhdev का जन्म चैत्र शुक्ला नवमी को अयोध्या में हुआ था तथा माघ कृष्णा चतुर्दशी को इनका निर्वाण कैलाशपर्वत से हुआ था। आचार्य जिनसेन के आदिपुराण में तीर्थकर ऋषभदेव के जीवन चरित का विस्तार से वर्णन है।ऋषभदेव का  भारत के स्वाभिमान  ,स्वावलंबन  और स्वाधीनता के लिए अतुलनीय योगदान है |

स्वावलंबन की आधारशिला –

तीर्थंकर ऋषभदेव ने स्वावलंबी होना सिखाया । पौराणिक मान्यता है कि पहले भोगभूमि थी और मनुष्यों  की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति कल्पवृक्ष से हो जाती थी अतः वे परिश्रम नहीं करते थे । कर्म भूमि के प्रारंभ होते ही कल्पवृक्ष समाप्त होने लगे । मनुष्यों के सामने संकट खड़ा हो गया कि वे जीवन का निर्वहन कैसे करें ? अयोध्या के राजा ऋषभदेव ने लोगों को खेती करना और अन्न उपजाना सिखाया । उन्होंने षट्कर्म की शिक्षा दी – असि,मसि,कृषि ,विद्या ,वाणिज्य और शिल्प ।भारत के मनुष्यों को सबसे पहले इन षट्कर्मों के माध्यम से स्वावलंबी बनाया ।

स्त्री शिक्षा और सशक्तिकरण-

तीर्थंकर ऋषभदेव Tirthankar Rishabhdev ने  स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में अद्भुत क्रांति की |वे जानते थे कि स्त्री शिक्षित होकर ही स्वावलंबी और सशक्त  हो सकती है |सर्वप्रथम उन्होंने ॐ नमः सिद्धं मन्त्र का उच्चारण करवाकर अपनी दोनों पुत्रियों ब्राह्मी और सुन्दरी को गोद में बैठाकर क्रमशः दायें हाथ से लिपि विद्या और बाएं हाथ से अंक विद्या (गणित ) की शिक्षा दी | यही कारण है कि आज भी इकाई दहाई संख्या की गणना बायीं ओर से की जाती है | अक्षर अर्थात् वर्णमाला दायीं ओर से पढ़ी जाती है | भारत में सबसे प्राचीन लिपि जिसमें सम्राट अशोक के शिलालेख लिखे गए थे उसका नाम ब्राह्मी लिपि  ऋषभदेव की पुत्री ब्राह्मी के नाम पर ही पड़ा |

पूर्ण स्वतंत्रता की घोषणा –

तीर्थंकर ऋषभदेव Tirthankar Rishabhdev ने  दर्शन और अध्यात्म के क्षेत्र एक व्यवस्थित स्वतंत्रता की अवधारणा प्रस्तुत की और वह थी आत्मा को ही परमात्मा कहने की |’अप्पा सो परमप्पा’ –यह उनका उद्घोष वाक्य था |उसके बाद शेष तेईस तीर्थंकर इसी दर्शन को आधार बना कर स्व-पर का कल्याण करते रहे | प्रत्येक मनुष्य तप के माध्यम से स्वयं अपने समस्त दोषों को दूर करके भगवान् बन सकता है अर्थात् कोई भी आत्मा किसी अन्य परमात्मा के आधीन नहीं है और वह पूर्ण स्वतंत्रता है और मुक्ति को प्राप्त कर सकता है |उनका यह दर्शन उन्हें दुनिया के उन धर्मों से अलग करता है जो यह मानते हैं कि ईश्वर मात्र एक है तथा मनुष्य उसके आधीन है और मनुष्य स्वयं कभी परमात्मा नहीं बन सकता | ऋषभदेव का यह स्वर भारतीय दर्शन में भी मुखरित हुआ | उसकी चर्चा संसार का प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद इन शब्दों में करता है-

                                            “ त्रिधा बद्धोवृषभोरोरवीतिमहादेवोमत्यां आ विवेश॥

इस मन्त्रांश का सीधा शब्दार्थ है-तीन स्थानों से बंधे हुये वृषभ ने बारंबार घोषणा की कि महादेव मनुष्यों में ही प्रविष्ट हैं। यह घोषणा आत्मा को ही परमात्मा बनाने की घोषणा है। आत्मा में परमात्मा के दर्शन करने के लिए मन, वचन, काय का संयम आवश्यक है। यह त्रिगुप्ति ही वृषभ का तीन स्थानों पर संयमित होना है। उपनिषदों ने भी घोषणा की- अयम् आत्मा ब्रह्म। वेदान्त ने तो इतना भी कह दिया कि सब शास्त्रों का सार यही है कि जीव ही ब्रह्म है- जीवो ब्रह्मैवनापर:।यदि धर्म दर्शन के क्षेत्र में भारतीय संस्कृति को गैर-भारतीय संस्कृति से अलग करने वाला व्याव‌र्त्तक धर्म खोजा जाय तो वह है- आत्मा परमात्मा की एकता और इस तथ्य के अन्वेषण में तीर्थंकर ऋषभदेव का महत्वपूर्ण योगदान है।

पहला निःशस्त्रीकरण –

Tirthankar Rishabhdev ऋषभदेव के प्रमुख दो पुत्र चक्रवर्ती भरत और बाहुबली के बीच जब युद्ध की नौबत आ गई और दोनों ओर सेनाएं खड़ी थीं तब यह विचार हुआ कि झगडा भरत और बाहुबली के बीच है तो सेना युद्ध करके क्यों मरे ? जन-धन की हानि क्यों हो ? संवाद के माध्यम से यह तय हुआ कि  युद्ध बिना किसी शस्त्र के भरत और बाहुबली के बीच ही होगा | निर्णयानुसार बिना किसी शस्त्र के जल युद्ध ,मल्ल युद्ध और दृष्टि युद्ध हुआ और बाहुबली विजयी हुए ,बाहुबली ने ज़ीतने के बाद भी राज्य भरत को दे दिया और स्वयं दीक्षा ग्रहण करके तपस्या करने चले गए |आज चारों तरफ युद्ध का वातावरण है,निःशस्त्रीकरण की अवधारणा सिर्फ इसीलिए आई थी कि शस्त्र होगा तो कभी न कभी युद्ध भी होगा और तबाही मनुष्य की ही होगी |इतिहास के अनेक युद्धों में अहिंसक युद्ध का और निःशस्त्रीकरण का पहला उदाहरण भी ऋषभदेव के समय में ही मिलता है |

देश का भारत नामकरण –

भारत के तीर्थंकर ऋषभदेव Tirthankar Rishabhdev का मानव सभ्यता  के विकास में इतना जबरजस्त योगदान था कि सिर्फ भारत की हिन्दू परम्परा ही नहीं बल्कि अनेक देशों की परम्पराओं में उनका उल्लेख प्राप्त होता है | इस देश ने तो अपना नाम  ही ऋषभदेव के पुत्र भरत चक्रवर्ती के नाम पर ‘भारत’ रखकर उनका उपकार माना है | सिर्फ जैन ग्रंथों में ही नहीं बल्कि वैदिक परंपरा के अनेक पुराणों में दर्जनों स्थान पर इस बात की उद्घोषणा भी की गई है |अग्निपुराण (१०/११ ) में उद्धरण है –

ऋषभोदात् श्री पुत्रे शाल्यग्रामे हरिं गतः |

भरताद्  भारतं वर्षं भरतात् सुमति स्त्वभूत् ||

 जीवन जीने की कला का सूत्रपात  –

तीर्थंकर ऋषभदेव Tirthankar Rishabhdev ने स्वयं अयोध्या में राजपाठ तो किया ही किन्तु बाद में विरक्त होकर दीक्षा ग्रहण कर जंगलों में जाकर तपस्या की और कैवल्यज्ञान की प्राप्ति कर मुक्ति का मार्ग भी प्रशस्त किया | कृषि करो और ऋषि बनो – इस सूत्र के मंत्रदाता के रूप में उन्होंने जीवन जीने की कला सिखलाई | कृषि करना भी सिखाया और  तदनंतर ऋषि बनना भी सिखाया | आज भी हमारा देश और कृषि और ऋषि प्रधान देश माना जाता है |

निष्कर्ष

तीर्थंकर ऋषभदेव Tirthankar Rishabhdev के जीवन में और उपदेश में प्रवृत्ति और निवृत्ति का अद्भुत समन्वय था ,शायद इसीलिए प्रवृत्ति प्रधान मानी जाने वाली वैदिक परंपरा और निवृत्ति प्रधान मानी जाने वाली श्रमण परंपरा दोनों के ही वे आराध्य हैं और दोनों के ही शास्त्रों में उनका पुण्य स्मरण अत्यंत श्रद्धा के साथ किया गया है |इस दृष्टि से भारतीय संस्कृति को जोड़कर रखने वाले भगवान् ऋषभदेव के जन्मकल्याणक को सभी मिलकर मनाएं तो भारतीय संस्कृति का नया मार्ग प्रशस्त होगा |

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected!