Solahkaran bhavna : सोलहकारण भावना : दर्शनविशुद्धि की अनिवार्यता
प्रो.डॉ. अनेकान्त कुमार जैन
भूमिका
सम्यग्दर्शन मोक्षमार्ग की साधना का पहला सोपान है । तीर्थंकरप्रकृति की कारणभूत Solahkaran bhavna षोडश भावनाओं में सर्वप्रधान भावना दर्शनविशुद्धि है। क्योंकि दर्शनविशुद्धि ही आत्मस्वरूप संवेदन के प्रति एक मात्र कारण है। सम्यग्दर्शन का अत्यंत निर्मल व दृढ हो जाना ही दर्शनविशुद्धि है । इसके बिना शेष 15 भावनाएँ निरर्थक मानी गईं हैं।
मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के उपशम, क्षयोपशम अथवा क्षय हो जाने से जो उत्पन्न होता है , उसको ‘ सम्यग्दर्शन‘ कहते हैं। उपशम सम्यग्दर्शन होता तो है किंतु वह रहता केवल अंतर्मुहूर्त तक है, उसके बाद अवश्य छूट जाता है। क्षायिक सम्यग्दर्शन सदा अनंतकाल तक बना रहता है। क्षयोपशम सम्यग्दर्शन अधिकतम कुछ कम ६६ सागर तक रहता है। अनादि मिथ्यादृष्टि जीव को सबसे प्रथम उपशम सम्यक्त्व होता है, उस समय मिथ्यात्व प्रकृति के ३ भाग हो जाते हैं। मिथ्यात्व (तत्त्व या आत्मा को अश्रद्धा या विपरीत श्रद्धा करने वाला), सम्यक् मिथ्यात्व (श्रद्धा अश्रद्धा का मिश्र रूप परिणाम का उत्पादक) और सम्यक् प्रकृति (सम्यक्त्व में चल, मल, आगाढ दोष पैदा करने वाली), जब इन तीनों प्रकृतियों का क्षय हो जाता है तब सदा के लिये पूर्ण निर्मल सम्यक्त्व प्रकट होता है। मिथ्यात्व, सम्यग् मिथ्यात्व प्रकृति के उपशम और क्षय (निष्फल उदय) तथा सम्यक् प्रकृति के उदय से जो सम्यग्दर्शन होता है उनमें निम्नलिखित शंकादि 25 मलदोष दोष उत्पन्न हो सकते हैं –(8 शंका आदि , ८ मद , तीन-देवगुरुलोकमूढ़ता,तीन -कुदेव कुगुरु कुधर्म की सेवा,तीन – इन तीनों के भक्त की विनय )
इन 25 दोषों से सम्यग्दर्शन मलिन होता रहता है। इन 25 दोषों को निवारण करके सम्यग्दर्शन निर्मल रखना ‘दर्शन विशुद्धि‘ भावना है। तीर्थंकर प्रकृति का बंध होने के लिये यह भावना सबसे अधिक आवश्यक है। यदि अन्य 15 भावनायें किसी व्यक्ति के हो जायें किंतु उसके दर्शनविशुद्ध भावना न हो तो उस पुरुष के तीर्थंकर प्रकृति का बंध नहीं हो सकता तथा दर्शनविशुद्धि भावना के रहते हुए शेष 15 भावनाओं में से कोई भी 1,2,3,4,आदि हो जावें तो उसके तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो सकता है।Solahkaran bhavna
शास्त्रीय लक्षण
आचार्य पूज्यपाद कृत सर्वार्थसिद्धि तथा आचार्य अकलंक देव कृत राजवार्तिक में इस दर्शनविशुद्धि भावना का लक्षण उपदिष्ट है[1] –
जिनोपदिष्टे निर्ग्रन्थे मोक्षवर्त्मनि रुचि: नि:शंकितत्वाद्यष्टांगादर्शनविशुद्धि:।।१।।
जिनोपदिष्ट निर्ग्रंथ मोक्षमार्ग में रुचि तथा नि:शंकितादि आठ अंग सहित होना सो दर्शनविशुद्धि है।[2]
इस प्रकार से प्रशम, संवेग, अनुकंपा और आस्तिक्य इन चार गुणों को भी धारण करना चाहिये। इस सम्यक्त्व के होने पर ही आगे की भावनायें कार्यकारी हैं अन्यथा नहीं। इसलिये इस दर्शनविशुद्धि ही सर्वप्रथम ग्रहण करने योग्य है ।
इस दर्शनविशुद्धि के प्रभाव से राजा श्रेणिक ने सातवें नरक की तेंतीस सागर की आयु को घटा-घटा कर मात्र पहले नरक में चौरासी हजार वर्ष प्रमाण ही कर लिया तथा तीर्थंकर प्रकृति का भी बंध कर लिया था । आज तक जितने भी जीव तीर्थंकर हुये हैं, होते हैं अथवा होंगे वे सब इस दर्शनविशुद्धि के प्रभाव से ही हैं ।
धवला में लिखा है ‘दर्शन’ का अर्थ सम्यग्दर्शन है। उसकी विशुद्धता का नाम दर्शनविशुद्धता है। ..उस दर्शनविशुद्धि से जीव तीर्थंकर नामकर्म का बंध करते हैं । तीन मूढताओं से रहित और आठ मलों से व्यतिरिक्त जो सम्यग्दर्शनभाव है उसे दर्शनविशुद्धता कहते हैं।
दंसणं सम्मद्दंसणं, तस्स विसुज्झदा दंसणविसुज्झदा, तोए दंसणविसुंझदाए जीवा तित्थयरणामगोदं कम्मं बंधंति। तिमूढावोढ-अट्ठ-मलवदिरित्तसम्मद्दंसणभावो दंसणविसुज्झदा णाम।[3]
वहाँ आगे कहते हैं कि शुद्ध नय के अभिप्राय से तीन मूढताओं और आठ मलों से रहित होने पर ही दर्शनविशुद्धता नहीं होती, किंतु पूर्वोक्त गुणों से अपने निज स्वरूप को प्राप्तकर स्थित सम्यग्दर्शन की साधुओं की प्रासुक परित्याग आदि …की युक्तता में प्रवर्तने का नाम विशुद्धता है।
ण तिमूढा वोढत्तट्ठमलवदिरेगेहि चेव दंसणविसुज्झदा सुद्धणयाहिप्पाएण होदि, किंतु पुव्विल्लगुणेहिं सरूवं लद्धूण ट्ठिदसम्मदंसणस्स साहूणं पासु अपरिच्चागे…पयट्ठावणं विसुज्झदा णाम।[4]
चारित्रसार में सम्यग्दर्शन के अनंतर दर्शनविशुद्धि का विशेष कारण इस प्रकार निर्दिष्ट किया है –
विशुद्धिं विना दर्शनमात्रादेव तीर्थंकरनामकर्मबंधो न भवति त्रिमूढापोढाष्टमदादिरहितत्वात् उपलब्धनिजस्वरूपस्य सम्यग्दर्शनस्य…शेषभावनानां तत्रैवांतर्भावादिति दर्शनविशुद्धता व्याख्याता।[5]
सम्यग्दर्शन की विशुद्धि के बिना केवल सम्यग्दर्शन होने मात्र से तीर्थंकर नामकर्म का बंध नहीं होता। वह विशुद्ध सम्यग्दर्शन में (चाहे तीन में से कोई सा भी हो) तीन मूढता और आठ मदों से रहित होने के कारण अपने आत्मा का निजस्वरूप प्रत्यक्ष होना चाहिए…बाकी की पंद्रह भावनाएँ भी उसी एक दर्शनविशुद्धि में ही शामिल हो जाती हैं, इसलिए दर्शनविशुद्धता का व्याख्यान किया।
धवला में जिज्ञासा समाधान इस विषय में किया गया है –
प्रश्न–केवल उस एक दर्शनविशुद्धता से ही तीर्थंकर नामकर्म का बंध कैसे संभव है, क्योंकि, ऐसा मानने से सब सम्यग्दृष्टियों के तीर्थंकर नामकर्म के बंध का प्रसंग आवेगा?
उत्तर–इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि शुद्ध नय के अभिप्राय से तीन मूढ़ताओं और आठ मलों से रहित होने पर ही दर्शनविशुद्धता नहीं होती, किंतु पूर्वोक्त गुणों से (तीन मूढताओं व आठ मलों रहित) अपने निज स्वरूप को प्राप्तकर स्थित, सम्यग्दर्शन के, साधुओं को प्रासुक परित्याग, साधुओं की समाधिसंधारणा, साधुओं की वैयावृत्ति का संयोग, अरहंत भक्ति, बहुश्रुत भक्ति, प्रवचन भक्ति, प्रवचन वत्सलता, प्रवचन प्रभावना और अभीक्ष्णज्ञानोपयोग युक्तता में प्रवर्तने का नाम विशुद्धता है। उस एक ही दर्शनविशुद्धता से ही तीर्थंकर कर्म को बाँधते हैं।[6]
अरहंत के द्वारा उपदिष्ट अनुष्ठान के अनुकूल प्रवृत्ति करने या उक्त अनुष्ठान के स्पर्श को अर्हंत भक्ति कहते हैं और यह दर्शनविशुद्धतादिकों के बिना संभव नहीं है । [7]
आचार्य विद्यानंद जी ने श्लोकवार्तिक में और उसके हिंदी व्याख्याकार पंडित माणिकचंद जी कौन्देय ने इस विषय में अधिक विमर्श किया है –
भगवान् अर्हंत परमेष्ठी द्वारा उपदिष्ट किये गये मोक्षमार्ग में रुचि होना दर्शनविशुद्धि है। …….ये सोलह कारण सम्पूर्ण होयं अथवा दर्शन विशुद्धि के साथ अकेले दुकेले भी होयं, समीचीन भावना किये गये संते तीर्थकर नाम कर्म के आस्रव हेतु समझ लेने चाहिये । के पुनर्दर्शनविशुद्धयादय इत्युच्यते; कोई शिष्य पूँछता है कि दर्शन विशुद्धि आदिक फिर कौन हैं ? ऐसा प्रश्न प्रवर्तने पर ग्रन्थकार द्वारा उत्तर वार्तिकों करके समाधान कहा जाता है ।Solahkaran bhavna
जिनोपदिष्टे नैन थ्यमोक्षवर्त्मन्यशंकनं ।
अनाकांक्षणमप्यत्रामुत्र चैतत्फलाप्तये । । १। ।
विचिकित्सान्यदृष्टीनां प्रशंसा संस्तवच्युतिः ।
मौढ्यादिरहितत्त्वं च विशुद्धिः सा दृशो मता ॥२॥
श्री अहंत परमेष्ठी भगवान् करके उपदेशे गये निर्ग्रन्थपना स्वरूप मोक्षमार्ग जो शंकादि रहित रुचि करना है वह सम्यग्दर्शन की विशुद्धि मानी गयी है । जिस दर्शनविशुद्धि में आठ अंग युक्तता ,सातभय, मूढता आदि से रहितपना है ।…वह दर्शन की विशुद्धि आम्नायधारा से मान्य चली आ रही है । ये असंख्य जीव जिनशासन के अवलम्ब बिना नरक, निगोद, गर्त में डूबते जा रहे हैं। इनका उद्धार कैसे किया जाय ? इस प्रकार संसार समुद्र से उतारने की तीव्र भावना इसके बनी रहती है। (पृष्ठ 525-26 )
अथ किमेते दर्शनविशुद्धयादयः षोडशापि समुदितास्तीर्थकरत्वसंवर्तकस्य नामकर्मणः पुण्यास्रवः प्रत्येकं वेत्यारेकायामाह Solahkaran bhavna
अब यहां कोई शंका उठाता है कि क्या ये दर्शन विशुद्धि, विनय सम्पन्नता, आदि सोलहों भी भावनायें समुदित होकर तीर्थकरत्व का सम्पादन करने वाले पुण्यस्वरूप नाम कर्म के आस्रव हैं ? अथवा क्या षोडश भावनाओं में प्रत्येक भी तीर्थकरत्व पुण्यनाम कर्म का आस्रव है ? बताओ। इस प्रकार आशंका उपस्थित होने पर ग्रन्थकार उत्तर को कहते हैं।
दृगविशुद्धयादयो नाम्नस्तीर्थकृत्त्वस्य हेतवः ।
समस्ता व्यस्तरूपा वा दृग्विशुद्धया समन्विताः ॥१७॥
सर्वातिशायि तत्पुण्यं त्रैलोक्याधिपतित्वकृत् ।
प्रवृत्त्यातिशयादीनां निर्वर्तकमपीशितुः ॥१८॥
समस्त यानी पूरी सोलहों अथवा व्यस्त यानी प्रत्येक भी दर्शन विशुद्धि आदिक भावनायें तीर्थकरत्व नामकर्म की हेतु हैं किन्तु वे दर्शन विशुद्धि से भले प्रकार अन्वित होनी चाहिये । “सम्मेव तित्थबन्धो” यह तीर्थकरत्व नाम कर्म का पुण्य, सम्पूर्ण दिव्यविभूतियों में सर्वोत्कृष्ट महान अतिशय को धारने वाला है और तीनों लोकों को जीत कर तीर्थकर भगवान् में शैलोक्य के अधिपतित्व को स्थापित करने वाला है। साथ ही अनन्त सामर्थ्य युक्त हो रहे परमेश्वर जिनेन्द्र देव के प्रवृत्ति करके अतिशय आदिकों का सम्पादक भी वह तीर्थंकरत्त्व पुण्य है । अर्थात् तेरहमे, चौदहमे गुणस्थानों में तीर्थकरत्व प्रकृति का उदय है । तीर्थकरत्व के साथ अविनाभाव रखने वाली अन्य प्रशस्तप्रकृतियों का उदय तो गर्भ, जन्म अवस्था से ही है जिन्होंने पूर्व जन्म में ही तीर्थकरत्व को बांध लिया है उनको कुछ पहिले जन्म से ही विशेषतायें होने लग जाती हैं तेरहवें गुणस्थान में तो शतयोजन सुभिक्ष, आकाशगमन, चतुर्मुखदर्शन आदि कितने ही अतिशय उपज जाते हैं। तीर्थकरत्व का सबसे बढ़िया कार्य तो असंख्य जीवों को तत्वोपदेश देकर मोक्षमार्ग में लगा देना है। तीर्थंकर महाराज से ही धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति होती है ।
अत एव शुभनाम्नः सामान्येनास्रवप्रतिपादनादेव तीर्थंकरत्वस्य शुभनामकर्मविशेषास्रवप्रतिपत्तावपि तत्प्रतिपत्तये सूत्रमिदमुक्तमाचार्यैः । सामान्येऽन्तर्भूतस्यापि विशेषार्थिना विशेषस्यानुप्रयोगः कर्तव्य इति न्यायसद्भावात् ॥ 1
इसी कारण से अर्थात् इन संसारी जीवों के लिये महान् उपकारक होने से सर्वोत्कृष्ट तीर्थकरत्व का आस्रावक सबसे बड़ा सूत्र कहा है । यद्यपि ” तद्विपरीतं शुभस्य” इस सूत्र द्वारा सामान्य करके शुभ नाम कर्म के आस्रव का प्रतिपादन कर देने से ही शुभ नाम कर्म के विशेष हो रहे तीर्थकरत्व कर्म आस्रव की प्रतिपत्ति हो सकती थी तथापि उस सर्वातिशायि पुण्य की प्रतिपत्ति कराने के लिये इस सूत्र को आचार्यों ने पृथक से कह दिया है । सामान्य में अन्तर्भूत हो चुके विशेष का भी विशेष के अभिलाषी पुरुष करके स्वतंत्रतया उस विशेष का पुनः प्रयोग कर देना चाहिये इस प्रकार के न्याय का सद्भाव है । “ब्राह्मणवशिष्ट न्याय” अथवा “जिनेन्द्रदेवमहावीर” न्याय प्रसिद्ध हैं । इन लौकिकन्यायों अनुसार जगदुपकारी और जड़ कर्मों की भी प्रशंसा करा देने वाली तीर्थकरत्व प्रकृति का पृथक सूत्र द्वारा निरूपण करना सहृदय सूत्रकार का समुचित प्रयास है ।(पृष्ठ 529-30) Solahkaran bhavna
कुछ जिज्ञासाएं –
- तीर्थंकर प्रकृति 24 जीवों को बंधी थी ,भूत भविष्यत और वर्तमान में भी ऐसा हुआ था ।
- सम्ग्यग्दर्शन पूर्वक मोक्षमार्ग पर चलने वाले अनंत जीवों ने मुक्ति प्राप्त की ,उन्हें आठ अंग सहित ,तीन मूढ़ता रहित ,सात भय रहित आदि जो भी लक्षण बताये जा रहे हैं ,उन लक्षणों से युक्त ही सम्यग्दर्शन हुआ था ,तभी उनका रत्नत्रय निर्दोष हुआ और मोक्ष प्राप्त हुआ ।
- फिर दर्शन विशुद्धि में ऐसी कौन सी विशेषता या विशुद्धि है जो तीर्थंकर प्रकृति नामक विशेष पुण्य प्रकृति का वह कारण हो जाती है ?
- तीर्थंकर प्रकृति का बंध करने के उद्देश्य से ये भावनाएं होंगी तो क्या तीर्थंकर प्रकृति बंधेगी ?
- सम्यग्दर्शन तो आत्मा का स्वभाव है और स्वभाव के कारण बंध नहीं होता ।
विशुद्धि का अर्थ –
धवला में आचार्य वीरसेन स्वामी विशुद्धि का लक्षण लिखते हैं –
‘का विसोही। सादबंधजोग्गपरिणामो।‘[8] अइतिव्वकसायाभावो मंदकसाओ विसुद्धदा त्ति घेत्तव्वा।[9] साता के बंध योग्य परिणाम को विशुद्धि कहते हैं। अत्यंत तीव्र कषाय के अभाव में जो मंद कषाय होती है, उसे विशुद्धता पद से ग्रहण करना चाहिए।
ऐसा लगता है कि तीर्थंकर प्रकृति के बंध के प्रसंग में मंद कषाय रूप शुभ परिणाम का नाम विशुद्धि है , इसलिए वहां उसका बंध होता है अन्यथा अकेला सम्यक्त्व बंध का कारण नहीं होता है ।
पंडित चैनसुखदास जी के विचार -Solahkaran bhavna
इस प्रकरण में जैन मनीषी पंडित चैनसुखदास जी द्वारा रचित Solahkaran bhavna सोलहकारण भावना विवेक में बहुत गंभीरता से विचार किया गया है,उन्होंने समस्त आगमों का अध्ययन करने के अनंतर दर्शन विशुद्धि की जो व्याख्या प्रस्तुत की है उसके प्रमुख बिंदु निम्नलिखित प्रकार से हैं –
- निरंतर यह चिंतन करते रहना कि यह विशुद्ध सम्यग्दर्शन मुझे प्राप्त हो दर्शन विशुद्धि भावना है । [10]
- आचार्यों ने दर्शन की शुद्धि अर्थात् सम्यग्दर्शन के बिना शेष भावनाओं को व्यर्थ कहा है । [11]
- सम्यक्त्व के साथ होने वाला शुभोपयोग ही तीर्थंकर प्रकृति के बंध का कारण है क्यों कि अकेला सम्यक्त्व तो आत्मगुण होने के कारण बंध का हेतु हो ही नहीं सकता । [12]
Solahkaran bhavna सोलहकारण भावना अनुशीलन –
आचार्य श्री विशुद्धसागर जी ने सोलहकारण भावना अनुशीलन में इस विषय में जो विचार अभिव्यक्त किये हैं ,उनके मुख्य बिंदु दृष्टव्य हैं –
- दर्शन का अर्थ सम्यग्दर्शन है, उसी की विशुद्धि का नाम ‘दर्शन विशुद्धि’ है। दर्शन विशुद्धि वाला जीव ही तीर्थंकर प्रकृति का बंध करता है। तीन मूढ़ताओं से रहित, आठ मदों से व्यतिरिक्त जो सम्यग्दर्शन भाव होता है, उसे ‘दर्शन विशुद्धता’ कहते हैं।
- अहो ! अहो ! अहो ! सम्यक्त्व की महिमा तो देखो, सम्पूर्ण शेष भावनाएँ दर्शन विशुद्धि भावना पर हीआलम्बित हैं। प्रथम भावना का अभाव हो गया, तो शेष भावनाएँ स्वतः समाप्त हो जाती हैं। दर्शन विशुद्धि भावना के अभाव में शेष भावनाओं की अन्यथानुत्पत्ति है, दर्शन विशुद्धि भावना की सत्ता है तो शेष भावनाओं की तथोत्पत्ति है।(पृष्ठ 3)
- तत्त्वज्ञानी को शान्त चित्त होकर निज-परिणामों को प्रमेय बनाना चाहिए। देहाश्रित क्रियाओं के समीचीन होने पर भी आत्माश्रित परिणामों की दशा विपरीत हो सकती है। असि धार पर चलना कठिन नहीं है, अपितु परिणामों को सँभालना कठिन है। जगत् को सँभालने की बात करने वाले भी सँभालनहारे को नहीं सँभाल पाते और मिथ्यात्व की भूमि पर पतित हो जाते हैं।(पृष्ठ 3)
- शास्त्रों का गहनतम पाण्डित्य भिन्न है और आत्मरुचि, तत्त्वश्रद्धान, रत्नत्रय की आराधना के परिणामों से युक्त परिणामों का पाण्डित्य भिन्न है। निर्वाण का हेतु शास्त्रज्ञान मात्र नहीं है, निर्वाण का हेतु हेय-उपादेयभूत तत्त्व को समझने की प्रज्ञा है, बोधि से मण्डित आत्मा की दशा है, जो वीतरागी तपोधनों के अंदर दर्शनीय है । धन्य है परम वीतरागी निर्ग्रन्थ मुनीश्वरों की दशा, जहाँ परभावों के शैवाल स्पर्श भी नहीं कर पाते हैं, एकमात्र ध्रुवधाम, निज भगवान्-आत्मा के दर्शन/वेदन में लीन रहते हैं,(पृष्ठ 4)
- अहो ज्ञानी ! लोक में अन्य-अन्य द्रव्य का संयोग अत्यंत सुलभ है, परन्तु निज आत्मा की विशुद्धि अत्यंत दुर्लभ है। आत्म-विशुद्धि के लिए सत्यार्थ साधक को प्रत्येक क्षण सम्यक्-पुरुषार्थ सतत ही करते रहना चाहिए। भावों की दशा अत्यंत विचित्र है, क्षणमात्र में स्वलोक को भूलकर लोकालोक में प्रवेश कर जाती है । ये भाव भाववान् को भगवान् भी बना सकते हैं और निगोद की यात्रा भी करा सकते हैं ।(पृष्ठ 5)
- स्व-पर का विवेक जब- तक जाग्रत नहीं होगा तब-तक दर्शन विशुद्धि भावना दूर है।(पृष्ठ 5)
- दर्शन विशुद्धि के लिए जो विशुद्धि चाहिए उस पर साधक एवं श्रावक का ध्यान जाना अनिवार्य है। जीवन चर्या को चरणानुयोग से विशुद्ध बना लेने के बाद भी आत्मा का अंतरंग पुरुषार्थ और अवशेष है जो कि सम्यक्त्व को प्रकट कराता है, उसे प्रारंभ करना चाहिए।(पृष्ठ 7)
- जिनशासन रागियों के द्वारा कहने योग्य नहीं है। प्रियधर्मी, दृढ़धर्मी, क्रोध, लोभ, हास्य, भीरुता से रहित, अनुवीचि भाषक द्वारा कहा जाने योग्य है। (पृष्ठ 8 )
- जिसके पास वचनगुप्ति नहीं, भाषा समिति ही नहीं, वहाँ सत्यधर्म की गंध ही नहीं, ऐसे लोग क्या अर्हत्-सूत्रों की सम्यक्-प्ररूपणा कर पायेंगे?(पृष्ठ 8 )
- दर्शन विशुद्धि तभी आएगी जब निर्दोष रूप से साधक व श्रावक सम्यक्त्व के आठ अङ्गों का पालन करता है। अष्ट-अंग-विहीन के ‘दर्शन-विशुद्धि‘ का होना असंभव समझना।(पृष्ठ 9 )
निष्कर्ष
- सोलहकारण भावना Solahkaran bhavna एक शुभोपयोग है जिससे उत्कृष्ट शुभनाम कर्म की प्रकृति ‘तीर्थंकरत्व’का आस्रव और बंध होता है
- जीव स्वयं के लिए और निःस्वार्थ भाव से शुद्ध सम्यक्त्व की तीव्र भावना करता है ,इसलिए जगत का परोपकार की निःस्वार्थ भावना प्रबल होने से वह भावना जगतकल्याण के निमित्तभूत तीर्थंकर प्रकृति के बंध का निमित्त बन जाती है ।
- यह भी विचारने योग्य है कि सोलहकारण पूजन में भी उन तीर्थंकर भगवान् की स्तुति की गई है जिन्होंने सोलहकारणभावना की थी , न कि सोलहकारणभावना Solahkaran bhavna की,जय भी परम गुरु अरिहंत तीर्थंकर की की गई है –
सोलह कारण भाय तीर्थंकर जे भये। हरषे इन्द्र अपार मेरुपै ले गये । ।
पूजा करि निज धन्य लख्यो बहु चावसौं। हमहू षोडश कारन भावैं भावसौं । ।
दरशविशुद्धि भावना भाय सोलह तीर्थंकर-पद-दाय। परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो । ।
- यहाँ विशुद्धि का अर्थ है मंद कषाय रूप परिणाम , न कि शुद्ध परिणाम ।
- यह भी निश्चित है कि जिस प्रकार की विशुद्धि की चर्चा या अपेक्षा सोलहकारण के प्रसंग में की जा रही है वह 24 के ही हो पाती है क्यों कि तीर्थंकर 24 ही होते हैं । चाहे वे भूत के हों ,वर्तमान के या फिर भविष्य के , या विदेह क्षेत्र के 20 तीर्थंकर हों ।
सन्दर्भ :
[1] राजवार्तिक/6/24/1/5/29
[2] सर्वार्थसिद्धि/6/24/338/5
[3] धवला 8/3,41/79/9
[4] ण तिमूढा वोढत्तट्ठमलवदिरेगेहि चेव दंसणविसुज्झदा सुद्धणयाहिप्पाएण होदि, किंतु पुव्विल्लगुणेहिं सरूवं लद्धूण ट्ठिदसम्मदंसणस्स साहूणं पासु अपरिच्चागे…पयट्ठावणं विसुज्झदा णाम।
[5] चारित्रसार/52/1
[6] कधं ताए एक्काए चेव तित्थयरणामकम्मस्स बंधो, सव्वसम्माइट्ठीणं तित्थयरणामकम्मबंधपसंगादो त्ति। वुच्चदे–ण तिमूढावोढत्तट्ठमलवदिरेगेहि चेव दंसणविसुज्झदा सुद्धणयाहिप्पाएण होदि, किंतु पुव्विल्लगुणेहिं सरूवं लद्धणं टि्ठदसम्मद्दंसणस्स साहूणं पासुअपरिच्चागे साहूणं समाहिसंधारणे साहूणं वेज्जावच्चजोगे अरहंतभत्तीए बहुसू भत्तीए पवयणभत्तीए पवयणवच्छलदाए पवयणे पट्टावणे अभिक्खणं णाणोवजोगजुत्तत्तणे पयट्ठावणं विसुज्झदा णाम। तीए दंसणविसुज्झदाए एक्काए वि तित्थयरकम्मं बंधंति।
-धवला 8/3,41/80/1
[7] अरहंतवुत्ताणुट्ठाणाणुवत्तणं तदणुट्ठाणपासो वा अरहंतभत्ती ण म। ण च एसा दंसणविसुज्झादादीहि विणा संभवइ, विरोहादो।
– धवला 8/3,41/86/5
[8] धवला 6/1, 9-7, 2/180/6
[9] धवला 11/4, 2, 6, 169-170/314/6
[10] सोलहकारणभावना विवेक , श्लोक 24,पृष्ठ18
[11] सोलहकारणभावना विवेक , श्लोक 25,पृष्ठ18
[12] सोलहकारणभावना विवेक , श्लोक 26,पृष्ठ19
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