Jain Acharya : मुनि संघ के आचार्य कैसे होते हैं ?
प्रो.अनेकांत कुमार जैन , नई दिल्ली
जैन परम्परा में श्रमण संघ के आचार्य के सम्बन्ध में प्रायः लोगों को आरंभिक परिभाषा का ही पता है कि–‘ जो मुनि संघ के नायक होते हैं वे आचार्य परमेष्ठी कहलाते हैं’,यहाँ जानकारी के लिए जैन आगमों में प्रतिपादित आचार्य परमेष्ठी की अन्य अनिवार्य विशेषताओं को भी मूल प्रमाण सहित बताया जा रहा है ।
तिलोयपण्णत्ति में आचार्य यतिवृषभ कहते हैं –
पंचमहव्वयतुंगा तक्कालिय-सपरसमय-सुदधारा ।
णाणागुणगणभरिया, आयरिया मम पसीदन्तु ।।
– तिलोयपण्णति (1/3)
आचार्य पञ्च महाव्रत ( अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य ) से समुन्नत, तत्कालीन स्वसमय और परसमय श्रुत के धारी-ज्ञाता तथा नाना गुणसमूह से परिपूर्ण होते हैं।
आचार्य वीरसेन स्वामी षटखंडागम की धवला में लिखते हैं –
पवयण-जलहि-जलोयर-ण्हायामल-बुद्धिसुद्धछावासो।
मेरु व्व णिप्पकंपो सुरो पंचाणणो वण्णो ॥
देसकुलजाइ सुद्धो सोमंगो संग-संग उम्मुक्को।
गयण व्व णिरुवलेवो आयरिओ एरिसो होई ॥
प्रवचन रूपी समुद्र के जल के मध्य में स्नान करने से अर्थात् परमात्मा के परिपूर्ण अभ्यास और अनुभव से जिनकी बुद्धि निर्मल हो गयी है, जो निर्दोष रीति से छह आवश्यकों का पालन करते हैं, जो मेरु के समान निष्कंप हैं, जो शूरवीर हैं, जो सिंह के समान निर्भीक हैं, जो वर्य अर्थात् श्रेष्ठ हैं, देश कुल और जाति से शुद्ध हैं, सौम्यमूर्ति हैं, अंतरंग और बहिरंग परिग्रह से रहित हैं, आकाश के समान निर्लेप हैं। ऐसे आचार्य परमेष्ठी होते हैं।
संगह-णिग्गह-कुसलो सुत्तत्थ विसारओ पहियकित्ती।
सारण-वारण-साहण-किरियुज्जुत्तो हु आयरिओ ॥
(धवला पुस्तक 1/1,1,1/29-31/50)
जो संघ के संग्रह अर्थात् दीक्षा और निग्रह अर्थात् शिक्षा या प्रायश्चित् देने में कुशल हैं, जो सूत्र अर्थात् परमागम के अर्थ में विशारद हैं, जिनकी कीर्ति सब जगह फैल रही है, जो सारण अर्थात् आचरण, वारण अर्थात् निषेध और साधन अर्थात् व्रतों की रक्षा करने वाली क्रियाओं में निरंतर उद्यत हैं, उन्हें आचार्य परमेष्ठी कहते हैं ।
पंचविधमाचारं चरंति चारयतीत्याचार्याः। चतुर्दशविद्यास्थानपारगाः एकादशांगधराः। आचारांगधरो वा तात्कालिकस्वसमयपरसमयपारगो वा मेरुरिव निश्चलः क्षितिरिव सहिष्णुः सागर इव बहिर्क्षिप्तमलः सप्तभयविप्रमुक्तः आचार्यः। (धवला पुस्तक 1/1,1,1/49/8)
जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य इन पाँच आचारों का स्वयं पालन करते है, और दूसरे साधुओं से पालन कराते हैं उन्हें आचार्य कहते हैं। जो चौदह विद्यास्थानों के पारंगत हों. ग्यारह अंगों के धारी हों, अथवा आचारांग मात्रके धारी हों, अथवा तत्कालीन स्वसमय और परसमय में पारंगत हों, मेरुके समान निश्चल हों, पृथ्वीके समान सहनशील हों, जिन्होंने समुद्र के समान मल अर्थात् दोषों को बाहर फेंक दिया हो, जो सात प्रकार के भय से रहित हों, उन्हें आचार्य कहते हैं।
भगवती आराधना में आचार्य शिवार्य कहते हैं –
आयारवं च आधारवं च ववहारवं पकुव्वीय।
आयावायवीदंसी तहेव उप्पीलगो चेव ॥
अपरिस्साई णिव्वावओ य णिज्जावओ पहिदकित्ति।
णिज्जवणगुणोवेदो एरिसओ होदि आयरिओ ॥
(भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 417-418)
आचार्य आचारवान्, आधारवान्, व्यवहारवान्, कर्ता, आयापायदर्शनोद्योत, और उत्पीलक होते हैं ।
आचार्य अपरिस्रावी, निर्वापक, प्रसिद्ध, कीर्तिमान् और निर्यापक के गुणों से परिपूर्ण होते हैं। इतने गुण आचार्य में होते हैं।
पद्मपुराण में भी उल्लिखित है कि आचार्य मुनियों के दीक्षागुरु और उपदेश दाता स्वयं आचरणशील होते हुए अन्य मुनियों को आचार पालन कराने वाले मुनि होते हैं । ये कमल के समान निर्लिप्त, तेजस्वी, शांतिप्रदाता, निश्चल, गंभीर और नि:संगत होते हैं ।(पद्मपुराण – 6.264-265, 89.28, 109.89)
निष्कर्ष –
इसी प्रकार अनेक ग्रंथों में आचार्य परमेष्ठी के स्वरुप को व्याख्यायित किया गया है ,उपर्युक्त प्रमाणों के आधार पर उसी आलोक में हम पाते हैं कि मुनि संघ के नायक पूज्य आचार्य में निम्नलिखित 7 लक्षण होते ही होते हैं ,और होने ही चाहिए अतः आचार्य पद के योग्य वे हैं ….
- जो आत्मकल्याण और निर्लिप्त भाव से परकल्याण में तत्पर रहते हों |
- जो मूलगुण- पांच महाव्रत,षडावश्यक आदि और पाँच आचारों का स्वयं पालन करते हों , और दूसरे साधुओं से पालन कराते हों |
- जो आगम चक्खु हों ,बहुश्रुत हों , अपने सिद्धांतों और अन्य के सिद्धांतों को भलीभांति जानते हों |
- जो दीक्षा ,शिक्षा और प्रायश्चित् देने में कुशल हों |
- जो स्वभाव से वीतरागी होने के साथ साथ धैर्यवान् , गंभीर ,तेजस्वी,दृढ निश्चयी,शूरवीर,निर्भीक,दूरदृष्टा और आत्मानुसंधाता हों |
- जिनकी कीर्ति सब जगह फैल रही हो,कुशल वक्ता हों और राष्ट्र में धर्मतीर्थ का संरक्षण करने में जो समर्थ हों |
- जो जिन शासन की महिमा बढ़ाने वाले हों ,आत्मशांति और विश्वशांति के प्रेरक हों |
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