Charvak Philosophy :चार्वाक : दर्शन की नन्हीं सी जान दुश्मन हजार
ICPR और भोगीलाल लहेरचन्द इन्स्टीट्यूट ऑफ इण्डोलाजी दिल्ली द्वारा सर्वज्ञता विषय पर आयोजित राष्ट्रीय सेमिनार(5/12/25) में वहाँ के यशस्वी निदेशक आदरणीय प्रो विजय कुमार जैन जी ने मुझे Charvak Philosophy चार्वाक दर्शन का पक्ष रखने का आग्रह किया । मैंने उनकी आज्ञा को शिरोधार्य करते हुए ,इसे स्वीकार भी किया ।
मैंने पूरी ईमानदारी से प्रयास किया और चार्वाक के प्रति पूर्वाग्रह युक्त ‘खाओ पीओ मौज उड़ाओ’ मानसिकता की समीक्षा करने का प्रयास किया और कहा कि चार्वाक वह है जो सवाल करता है , जो सवाल करता है, वह विकास करता है , आज किसी पंथ या सम्प्रदाय के रूप में चार्वाक भले ही प्रतिष्ठित न हो लेकिन भौतिकवाद के प्रतिनिधि के रूप में वह हर जगह ,हर दिल में प्रतिष्ठित है ,उसे किसी संगठन की जरूरत नहीं है ।
‘सवाल’ करने की हिम्मत का नाम है – चार्वाकCharvak Philosophy
तानाशाही के खिलाफ बगावत का नाम है – चार्वाकCharvak Philosophy
ईश्वर पर जिरह करने का जिगरा रखने का नाम है – चार्वाक Charvak Philosophy
सदियों से जिसने सवाल किया उसका मखौल उड़ाया गया ,उसे व्यभिचारी और इन्द्रिय लोलुपी कह कर उसके सवाल की गंभीरता को समाप्त करने की साजिशें हुई हैं ,पाखंड का विरोध करने वाले को ही पाखंडी घोषित करने की चालें चली गई , सभी दार्शनिकों ने उसे पूर्व पक्ष के रूप में प्रस्तुत किया लेकिन सिर्फ़ वही पक्ष जो उसे कमजोर बनाता है और इस प्रकार उसके गंभीर तत्त्व को ,सवाल को गायब भी किया गया ।
Charvak Philosophy चार्वाक के दो भेद थे – एक वह जो ऋण लेकर घी पीने की बात करता था और धर्म अध्यात्म आदि सबको एक सिरे से नकारता था , दूसरा वह जो अध्ययन शील था , सवाल करता था , पाखंड का विरोधी था ,दार्शनिक था ।चार्वाक दो प्रकार के हैं–धूर्त व सुशिक्षित। पहले तो पृथिवी आदि भूतों के अतिरिक्त आत्मा को सर्वथा मानते ही नहीं और दूसरे उसका अस्तित्व स्वीकार करते हुए भी मृत्यु के समय शरीर के साथ उसको भी विनष्ट हुआ मानते हैं |
[1] इसके अलावा सिद्धिविनिश्चय ग्रन्थ में दो प्रकार के नास्तिक बतलाये हैं जिसमें एक बौद्ध भी हैं –
तत्रेति द्वेधा नास्तिक्यं प्रज्ञासत् प्रज्ञप्तिसत् ।
तथादृष्टमदृष्टं वा तत्त्वमित्यात्मविद्विषाम् । [2]
नास्तिक्य दो प्रकार का है–प्रज्ञासत् व प्रज्ञप्तिसत्, अर्थात् बाह्य व आध्यात्मिक। बाह्य में दृष्ट घट स्तंभादि ही सत् हैं, इनसे अतिरिक्त जीव अजीवादि तत्त्व कुछ नहीं है, ऐसी मान्यता वाले चार्वाक प्रज्ञासत् नास्तिक हैं। अंतरंग में प्रतिभासित संवित्ति या ज्ञानप्रकाश ही सत् है, उससे अतिरिक्त बाह्य के घट स्तंभ आदि पदार्थ अथवा जीव अजीव आदि तत्त्व कुछ नहीं हैं, ऐसी मान्यता वाले सौगत (बौद्ध) प्रज्ञप्ति सत् नास्तिक हैं।
[1] स्याद्वादमंजरी/ परिशिष्ठ/पृष्ठ 443)
[2] सिद्धि विनिश्चय/मू./4/12/271
हमने राजनीति की तरह पहले वाले चार्वाक को पकड़ा और उसकी धज्जियाँ उड़ाईं ,ये आसान था ,दूसरे की चर्चा भी नहीं की ,क्यों कि उसके जबाब मुश्किल थे ।
हम बने रहे , अपने अपने भगवानों के नाम पर नदियां ,पर्वत ,क्षेत्र यहां तक कि सम्पूर्ण सृष्टि की रजिस्ट्री करते रहे , सभी ने अपनी प्रभुता पर फोकस किया वो चाहे जैसे भी बने ।
Charvak Philosophy चार्वाक ने आत्मा की सत्ता को चुनौती दी तभी हमने उसकी सिद्धि पर इतना चिंतन किया । वह सवाल नहीं करता तो हम आत्मा चिंतन की इतनी गहराई न नाप पाते , वह हमारा विरोधी नहीं था ,हमारी कमियां बताकर हमारा विकास करता था , हमारे भक्त कभी हमसे सवाल करने की हिम्मत नहीं करते हैं और बुद्धि भी नहीं रखते हैं ,वे हमारे विकास के सबसे बड़े बाधक हैं । हमारी प्रभुता को स्वीकार करने वाले हमें जड़ बनाने का कार्य करते हैं ।
Charvak Philosophy चार्वाक वास्तव में नास्तिक है , जैन और बौद्ध तो फर्जी नास्तिक हैं । ये वे हैं जिन्होंने सिर्फ वेद से सवाल किए , मगर धीरे धीरे उन्हीं सवालों के दायरे में स्वयं घिरते चले गए । वेद से सवाल किया इसलिए ‘ वेद निंदको नास्तिकः ‘ वाले स्वयं कृत लक्षण की कटार से घायल किये गए । दूसरे को ईश्वर न मान कर खुद को ईश्वर बना डाला । पर किसी न किसी रूप में ‘ईश्वरवाद’ सर्वज्ञवाद और प्रभुत्ववाद के शिकार खुद भी होते रहे ।
इन्हें नास्तिक कहना बेमानी है , नास्तिकता के सौंदर्य को नष्ट करने जैसा है । नास्तिकता की पूरी गरिमा और वजूद का रक्षण वास्तव में चार्वाक Charvak Philosophy करता है । चार्वाक हमारा दुश्मन नहीं दोस्त है , वह नास्तिक न होता तो हम आस्तिक भी न कहलाते । हमारा आस्तिकत्त्व उसके कारण है ।
देबिप्रसाद चट्टोपाध्याय के अनुसार—“सर्वज्ञता की अवधारणा पुरोहितवाद का औजार है।”[1]
चार्वाकों का भाव:
- सर्वज्ञ (गुरु/देव/बुद्ध/तीर्थंकर) को मानने से सत्ता-शक्ति संगठित होती है
- जनता प्रश्न पूछने से वंचित रहती है
- इसलिए सर्वज्ञता एक सामाजिक-राजनीतिक निर्माण है, दार्शनिक सत्य नहीं
- चार्वाक दर्शन का समाज-राजनीतिक विश्लेषण
आधुनिक विद्वान (चट्टोपाध्याय, भट्टाचार्य, दासगुप्ता)[2] मानते हैं कि चार्वाक दर्शन अपने युग की सबसे वैज्ञानिक, भौतिकवादी और तर्कवादी विचार धारा थी।
सर्वज्ञता-अस्वीकार का सामाजिक पक्ष—
- मनुष्य को भयमुक्त करना
- धार्मिक प्राधिकार को चुनौती
- ज्ञान को लोकतांत्रिक बनाना
- अनुभव की प्रधानता स्थापित करना
- सर्वज्ञता-विरोध के निहितार्थ
चार्वाक दर्शन यह स्थापित करता है कि—
- ज्ञान सीमित है, और सीमित ज्ञान स्वीकारना विनम्रता है।
- सर्वज्ञता की कल्पना ज्ञान-विकास को रोकती है।
- विज्ञान अनुभव और परीक्षण पर आधारित है, सर्वज्ञता उस पद्धति के विपरीत है।
- सामाजिक दृष्टि से सर्वज्ञता सत्ता-केन्द्रित व्यवस्था को जन्म देती है।
- चार्वाक मानव-केंद्रित यथार्थवाद पर आधारित दर्शन है, इसलिए वह सर्वज्ञता को नकारकर दृश्य जगत का सत्य स्वीकारता है।
निष्कर्ष
चार्वाक दर्शन में सर्वज्ञता का निषेध दर्शन की आधारशिला है। प्रत्यक्षवाद, भौतिकवाद, अनुभववाद, और सामाजिक प्रगतिशीलता—चारों मिलकर सर्वज्ञता की अवधारणा को खारिज करते हैं। यह निष्कर्ष केवल दार्शनिक स्तर पर नहीं बल्कि तर्कशास्त्र, समाजशास्त्र और मनोविज्ञान के स्तर पर भी समर्थित है।चार्वाक विचार हमें यह सिखाता है कि—ज्ञान का विस्तार प्रश्न पूछने से होता है, सर्वज्ञता को मान लेने से नहीं।
[1] Debiprasad Chattopadhyaya, Lokayata, p. 22–23.
[2] बृहस्पति-सूत्र, उपलब्ध खंड, चट्टोपाध्याय एवं भट्टाचार्य संपादित।
प्रो.अनेकान्त कुमार जैन ,नई दिल्ली
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