Kundalpur’s Tirthankar Adinath or Bade Baba: A Reconsideration
कुंडलपुर के तीर्थंकर आदिनाथ या बड़े बाबा : एक पुनर्विचार
प्रो अनेकान्त कुमार जैन,नई दिल्ली
3/3/22
मैं कभी कभी आचार्य समन्तभद्र के शब्द चयन पर विचार करता हूँ और आनंदित होता हूँ कि वे कितनी दूरदर्शिता से अपने साहित्य में उत्कृष्ट से उत्कृष्ट शब्द चयन पर ध्यान देते थे ।
एक दिन मैं अपने विद्यार्थियों को उनकी कृति रत्नकरंड श्रावकाचार पढ़ा रहा था । श्लोक था –
श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागमतपोभृताम् ।
त्रिमूढापोढमष्टांङ्गं सम्यग्दर्शनमस्मयम् ॥
इसकी व्याख्या के समय एक छात्रा ने पूछा कि गुरुजी ! देव ,शास्त्र और गुरु शब्द संस्कृत का भी है , प्रसिद्ध भी है ,उचित भी है फिर आचार्य ने उसके स्थान पर आप्त,आगम और तपस्वी शब्द का ही प्रयोग क्यों किया ? जब कि अन्य अनेक ग्रंथों में ,पूजा पाठादि में देव शास्त्र गुरु शब्द ही प्रयोग करते हैं ।
प्रश्न ज़ोरदार था । उसका एक उत्तर तो यह था कि आचार्य साहित्य वैभव के लिए भिन्न भिन्न पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग करते हैं जैसे उन्होंने अकेले सम्यग्दर्शन के लिए भी अलग अलग श्लोकों में अलग अलग शब्द प्रयोग किये हैं ।
लेकिन हमें गहराई से यह भी विचार करना चाहिए कि उन्होंने सिर्फ साहित्य वैभव के लिए ऐसा किया या उसमें कुछ अर्थ वैभव भी है ?
मैंने उसे समझाते हुए कहा कि देखो खाना,भोजन और आहार ये एक नज़र में तो पर्यायवाची भी हैं और अर्थ भी लगभग समान हैं किंतु जब इन शब्दों का प्रयोग करते हैं तो खुद के लिए खाना , मेहमानों के लिए भोजन और मुनिराज के लिए आहार शब्द का प्रयोग करते हैं । भोजन शब्द कितना भी अच्छा क्यों न हो किन्तु मुनिराज के लिए वह प्रयुक्त नहीं किया जाता है क्यों कि यह भोजन शब्द उनके पद,चर्या आदि की गरिमा को वहन नहीं कर पाता है । इसी प्रकार जब जल के लिए पानी,नीर आदि अनेक शब्द हैं किंतु जब श्री जी के अभिषेक की बात आती है तो हम जल ही बोलते हैं पानी नहीं । पानी शब्द कितना भी प्रचलित और लोकप्रिय क्यों न किन्तु वह अभिषेक के साथ उपयुक्त नहीं बैठता ,या ये कहें कि अभिषेक ,पूजन,विधान आदि की गरिमा को वहन नहीं कर पाता है ।
इसी प्रकार सामान्य रूप से तो देव शब्द अच्छा लगता है किंतु आचार्य नहीं चाहते थे कि कभी भी किसी भी काल में वीतरागी के अलावा इसका कोई और अर्थ भी निकले अतः उन्होंने इसके स्थान पर आप्त शब्द का प्रयोग किया । देव शब्द से स्वर्ग के देव , जल देव वायु देव आदि भी जाने जाते हैं , स्थान स्थान पर जिस किसी को देव संज्ञा दे दी जाती है लेकिन आप्त शब्द में कहीं भी ,किसी भी काल में सर्वज्ञ ,वीतरागी,हितोपदेशी के अलावा कुछ और अर्थ की संभावना लगभग न के बराबर ही रहती है अतः आप्त शब्द ही उन्हें सर्वाधिक उचित लगता है । इसी प्रकार आगम और शास्त्र शब्द के साथ भी है । आप्त का वचन ही आगम है अन्यथा शास्त्र तो आजकल नागरिक शास्त्र,रसायनशास्त्र,अपराध शास्त्र आदि अनेक अर्थों में भी प्रचलित होने से कभी किसी को जरा सा भी भ्रम न हो इसलिए आगम शब्द का ही चयन किया ।
गुरु और तपस्वी में भी ऐसा ही देखा जा सकता है । आजकल तो सभी गुरु ही हैं ।जिस किसी को गुरुदेव भी कह देते हैं भले ही वीतरागता और संयम से उनका दूर दूर तक लेना देना न हो । अनेक मत वाले अपने धर्म गुरु को गुरुदेव बोलते ही हैं । प्रत्येक विद्या का अध्यापक भी सामान्यतः गुरु ही कहलाता है । बनारस में प्रत्येक व्यक्ति एक दूसरे को ‘का गुरु’ से संबोधित करने की परंपरा है । गुरुजी एक आम शब्द हो चला है किंतु तपस्वी में जिस वैराग्य और तपस्या का बोध होता है वह आजकल सिर्फ गुरु में नहीं हो पाता है । उन्होंने सदाकाल इसके अर्थ और पद की गरिमा बनी रहे इसलिए इन उत्कृष्ट शब्दों का चयन किया ।
मुझे लगता है ऐसा प्रयोग और इस तरह की समझ का परिचय अब हम सभी को भी देना चाहिए । कभी कभी अनजाने में हम ऐसी बड़ी गलती कर देते हैं जिन्हें बाद में इतिहास में सुधारना बड़ा मुश्किल हो जाता है ।
जैसे दिल्ली में महरौली से गुरुग्राम जाने वाले रास्ते में छत्तरपुर मेट्रो स्टेशन के पास सरकार की तरफ से एक विशाल बोर्ड लगा है ‘आचार्य श्री तुलसी मार्ग ‘। मुझे प्रसन्नता हुई कि श्वेताम्बर जैन तेरापंथ के यशस्वी महान आचार्य तुलसी के नाम पर उनके जन्म शताब्दी वर्ष के अवसर पर समाज ने इस तरह का कार्य सरकार से करवाया । लेकिन अब क्या होगा ? तुलसी नाम के अनेक कवि और संत हिन्दू समाज में प्रसिद्ध हुए हैं । पूरी दुनिया कुछ समय बाद क्या अभी से ही यही समझती है कि ये उन्हीं के नाम पर है । कोई सरकारी कागज देखने तो जाता नहीं है । अब इसके स्थान पर नामकरण यदि *जैन आचार्य तुलसी मार्ग* समाज ने करवाया होता तो वर्तमान में या भविष्य में भी कभी कोई भ्रम ही खड़ा नहीं होता ।
हमारे तीर्थों के नाम भी हमें बहुत सोच समझ कर रख लेना चाहिए और बात व्यवहार भी वैसा ही करना चाहिए ।भविष्य की दृष्टि से सम्मेद शिखर जी को भी अब जैन सम्मेद शिखर जी बोलना लिखना प्रारंभ कर दीजिए । आने वाले दिनों के संकटों की गंभीरता को देखते हुए बात व्यवहार लेखन और सरकारी रिकॉर्ड में भी जैन गिरनार,जैन नैनागिरी,जैन द्रोणगिरि, जैन मंगलायतन, जैन वीरायतन, आदि जैसे भी करके संस्था,तीर्थ,मंदिर आदि में जहाँ फिट बैठता हो जैन शब्द अवश्य लिखवाना चाहिए ।
बनारस में स्याद्वाद महाविद्यालय गंगा घाट पर स्थित है । वहां सुपार्श्वनाथ भगवान की जन्मभूमि है । इसके घाट का निर्माण आरा के श्रेष्ठी प्रभुदास जैन जी ने करवाया था ,अतः इस घाट का नाम प्रभु घाट पड़ गया ,अब कोई पर्यटक यह नहीं समझ पाता है कि यह जैन धर्म से संबंधित घाट है । सरकार द्वारा जब सभी घाटों के नामों का पुनः लेखन हो रहा था तब महाविद्यालय के एक विद्यार्थी ने अपनी सूझबूझ से उस घाट का नाम जैन घाट लिखवा दिया । आज काशी के घाट अंतरराष्ट्रीय पर्यटन और आकर्षण का केंद्र हैं । पूरी दुनिया की मीडिया इसको कवर करती है तो उसमें जब जैन के नाम पर एक मात्र घाट का नाम आ जाता है तो लाज भी बची रहती है और गौरव भी होता है । ठीक उसके बगल में एक श्वेताम्बर जैन मंदिर भी है ,उस घाट का निर्माण बच्छराज जैन ने करवाया था किंतु उसका वहां नाम मात्र बच्छराज घाट है ,कोई इसे जैन संस्कृति से संबंधित नहीं मानता । लोग उसे मल्लाहों का घाट समझते हैं ।
इसी तरह कोई भी शिलापट्ट लिखवाएं उसमें वीर निर्वाण संवत् भी अवश्य लिखवाएं । दान का भी शिलापट्ट हो तो उसमें भी लिखवाएं ,भले ही कोष्ठक में अंग्रेजी तिथि लिख दें । इसी तरह हमें जैन मंदिरों के लिए चैत्यालय शब्द का भी व्यापक प्रयोग करना चाहिए ,क्यों कि यही वह शब्द है जो अन्य परंपरा में प्रयुक्त नहीं होता है । मुस्लिम की मस्जिद,ईसाई का चर्च,हिंदुओं का मंदिर , सिक्खों का गुरुद्वारा और जैनों का चैत्यालय – प्रसिद्ध होना चाहिए । यह हमारी मौलिक पहचान है जो सामान्य रूप से ही हमारी स्वतंत्र पहचान का बोध करा सकती है । वर्तमान में जैन समाज में चैत्यालय का सामान्य अर्थ छोटे या एक बेदी वाले मंदिर से ही लगाते हैं ,जब कि वास्तव में ऐसा नहीं है ।
इसी तरह का प्रसंग मेरे एक विद्यार्थी ने कुंडलपुर महामहोत्सव से लौटते समय ट्रेन में बातचीत का सुनाया । ट्रेन में एक सामान्य अजैन व्यक्ति ने कुंडलपुर के बड़े बाबा का यह अर्थ लगाया कि यहां जैनों के किसी बाबाBaba
की समाधि हुई होगी इसलिए यहां हर वर्ष मेला भरता है ठीक उसी प्रकार जैसे पीरबाबा , भैरवबाबा आदि अनेक नामों से गॉंव गॉंव में वार्षिक मेले का आयोजन होता रहता है ।
की समाधि हुई होगी इसलिए यहां हर वर्ष मेला भरता है ठीक उसी प्रकार जैसे पीरबाबा , भैरवबाबा आदि अनेक नामों से गॉंव गॉंव में वार्षिक मेले का आयोजन होता रहता है ।
मुझे लगा हम जैन तो इसका अर्थ समझते हैं लेकिन हम यह जो प्रचार करते हैं वह सिर्फ अपने लिए थोड़े ही करते हैं जनता जनार्दन के लिए करते हैं । यदि इस आम व्यक्ति के दिमाग में सिर्फ इतना ही चित्र हम बना पाए तो हमें अपने प्रचार तंत्र पर पुनर्विचार अवश्य करना चाहिए । हमें एक बार पुनर्विचार अवश्य करना चाहिए कि
Baba‘बड़ेबाबा’ संबोधन के अतिरेक में तीर्थंकर आदिनाथ ऋषभदेव कहीं छुप तो नहीं गए ?
इसके अलावा और भी बहुत कुछ हुआ । मैंने स्वयं अपने कई जैन रिश्तेदारों और मित्रों से पूछा कि यह अतिशय क्षेत्र है या सिद्ध क्षेत्र ? तो सभी ने कहा सिद्ध क्षेत्र ,क्यों कि जगह जगह यही लिखा हुआ था किंतु जब मैंने पूछा कि सिद्ध क्षेत्र क्यों है ? तो अधिकांश मौन हो गए क्यों कि श्रीधर केवली जिनके निर्वाण के कारण इस भूमि को सिद्ध क्षेत्र कहा जाता है ,अधिकांश को नहीं पता था । ‘बड़े बाबा’ संबोधन के अतिरेक में वे भी अचर्चित से रह गए ।
प्रचार हर समय नहीं हो पाता और ऐसा भी कम होता है कि सारी कायनात ही महामहोत्सव के लिए संकल्पित हो ।तब आयोजकों को यह दृष्टि भी रखनी चाहिए कि इस अवसर का भरपूर उपयोग उस स्थान के सभी महत्त्वपूर्ण पहलुओं को उजागर करने में भी कर लें । उसी धन,समय और शक्ति का उपयोग करके ।
Baba
बाबाBaba शब्द सिर्फ एक श्रद्धा का ही है ,यह शब्द न तो तीर्थंकर की गरिमा का वहन कर पाता है और न ही आचार्य या साधु परमेष्ठी की गरिमा का । मुझे लगता है कि सिर्फ यह तर्क काफी नहीं है कि यह जनता को पसंद है या बहुत पहले से प्रसिद्ध है ।
आज नाम बदलने की धूम तो पूरे देश में चल रही है ,शहरों के ,स्टेशनों के नाम ,आयोगों और मंत्रालयों के प्रसिद्ध और प्राचीन नाम तक बदले जा रहे हैं । इसके पीछे सिर्फ यह सोच है कि कहीं हमारी मूल संस्कृति न समाप्त हो जाये । अतः जो जैन संस्कृति से संबंधित प्राचीन मूल और गरिमापूर्ण नाम हैं उन्हें पुनः स्थापित किया जाना ही चाहिए ।
मैंने Babaबाबा शब्द प्रयोग के इतिहास की भी कुछ तलाश की तो पाया कि बाबा मूलतः फ़ारसी शब्द है । यह अधिकांश मुस्लिम देशों में पहाड़ी आदि के नाम से जाना जाता है । इसका बहुविकल्पीय प्रयोग होता है ।
इस संज्ञा का पुल्लिंग रूप पिता, पितामह, दादा, नाना, सरदार, बूढ़ा, बुज़ुर्ग, बच्चा आदि के लिए प्रसिद्ध है ।यह संज्ञा स्त्रीलिंग में भेड़ों वग़ैरा के चीख़ने की आवाज़ के रूप में जानी जाती है । आपने बच्चों की अंग्रेजी की कविता सुनी होगी बाबा Babaबाबा ब्लैक शीप …..यह उन्हीं भेड़ों की आवाज है । मिस्र में Babaबाबा एक मिस्री देवता है । मिस्र की सभ्यता के अनुसार बाबा लंगूर का रूप धारण करने वाले देवता हैं । प्राचीन स्लावी सभ्यता के अनुसार Babaबाबा यागा – मृत्यु या दूसरी दुनिया की देवी के रूप में है ।सुमेर सभ्यता में एक देवी को बाबाBaba कहा जाता है ।
कई देशों में बाबाBaba पहाड़ों की शृंखला को कहते हैं । जैसे कोह-ए-बाबाBaba अफ़ग़ानिस्तान के हिन्दु कुश में स्थित है।स्लावी भाषाओं में बाबा नारियों के लिए एक आम नाम है जो कभी बड़ी उम्र की औरतों के लिए भी प्रयोग किया जाता है।
उत्तर-पश्चिमी युन्नान प्रान्त, चीन के नाकसी लोगों द्वारा तैयार की जाने वाली मोटी और गोल प्रकार की एक रोटी को बाबा कहते हैं ।
सुप्रसिद्ध लेखक डॉ सुरेंद्र वर्मा के शब्दों में “सामान्यत: जब हम बाबा, शब्द कहते हैं तो हमारे दिमाग में एक बुज़ुर्ग आदमी की शक्ल आती है | लेकिन ज़रूरी नहीं है कि बाबा बूढ़ा ही हो | बहुतेरे भरी जवानी में बाबा बन जाते हैं | घर-बार त्याग कर, दाढी बढ़ाकर, हाथ में चिमटा धारण कर बाबा रूप धारण कर लेते हैं | अब उनके मन में संन्यास-भाव कितना होता है, यह तो नहीं कहा जा सकता लेकिन अपनी धज तो वे बाबा सरीखी बना ही लेते हैं | पर बाबा, इसमें संदेह नहीं, बुजुर्गों के लिए ही नहीं,साधु-संन्यासियों के लिए प्रयुक्त एक आदर सूचक संबोधन भी है |जब हम अपने बाबा-परबाबा की बात करते हैं, तो स्पष्ट: हम अपने पुरुखों को सम्मान दे रहे होते हैं | बाबा के साथ जब परबाबा भी लग जाता है तो हम बाबा या परबाबा तक ही सीमित नहीं रहते | इसमें हमारे परिवार के सभी बुज़ुर्ग आ जाते हैं | पिता को अरबी भाषा में “अब्बा” और फारसी में बाबा कहते हैं | कई परिवारों में पिता के पिता को भी ‘बाबा” कहा जाता है | “आदम” तक, जिसकी हम सब औलाद माने गए हैं, ‘बाबा आदम’ कहलाते हैं |”
मुझे लगा बाबाBaba शब्द का प्रयोग प्राकृत भाषा में तो हुआ ही होगा किन्तु प्राकृत भाषा के कोश पाइय-सद्द- महण्णवो में भी Babaबाबा शब्द नहीं दिखाई दिया ।
तीर्थंकर भगवंतों आचार्य परमेष्ठी के लिए प्राकृत साहित्य में भी कहीं इसका प्रयोग हुआ हो इसकी संभावना भी कम ही दिख रही है ।
जैन परंपरा में यद्यपि बाबाBaba शब्द का प्रयोग बहुत बाद में मिलता है ,जिसपर फ़ारसी का प्रभाव दिखाई देता है ।जैसे जैन कवि बुधजन का एक काव्य है –
Babaबाबा मैं न काहूका
Baba बाबा! मैं न काहूका, कोई नहीं मेरा रे ।।
जैन पुराणों के हिंदी अनुवादों में पितामह के लिएBaba बाबा शब्द का प्रयोग किया गया है किंतु इस शब्द का प्रयोग मूल में नहीं दिखा ।
यदि जैन परंपरा में यह शब्द प्रयोग है भी तो वह सामान्य अर्थों में ही है । तीर्थंकर ,वीतरागी दिगंबर संतों के लिए तो देखने में नहीं आया । प्राचीन संस्कृत मंत्रों में भी बाबा शब्द का प्रयोग दिखाई नहीं दिया । किन्तु
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्हं नमः बहुतायत रूप से उच्चारित हो ही रहा है । इसमें भी फ़ारसी का बाबा शब्द समाहित हो गया है । पर यह सब श्रद्धा सत्य है ।
जैन परंपरा में अतिशय क्षेत्र महावीर जी के भजनों आदि में भी टीले वाले बाबा , पदमपुरा वाले बाबा ,तिजारा वाले बाबा आदि भी स्थानीय स्तर पर थोड़ा बहुत प्रसिद्ध हैं किंतु इस संबोधन का बहुत अतिरेक नहीं है । नगर का नाम श्री महावीर जी है ,स्टेशन का नाम श्री महावीर जी है अतः मूल परंपरा पर ज्यादा बाधा नहीं आती है ,लेकिन फिर भी हमें सतर्क तो रहना चाहिए कि गुलाब बाबा, साईं बाबा आदि जैसे भ्रम आम भारतीय जनता में खड़े न हों और तीर्थंकर पद का ,नाम का ,उसके अर्थ, वैभव और अतिशय का जलवा बरकरार रहे ।यह जिम्मेदारी भी हमें स्वयं ही बिना किसी दुराग्रह के संभालनी होगी और समय रहते अपनी चूकों को सुधारना होगा ।
श्रद्धावशात् तो मैं स्वयं भी बड़े बाबा की जय बोलता ही हूँ किन्तु मेरे मन के किसी कोने में ऐसा लगता रहता है कि मैं अपने शब्दों में ,मंत्रोच्चार में वो माहात्म्य और गरिमा प्रगट नहीं कर पा रहा हूँ जिसके कुंडलपुर के तीर्थंकर आदिनाथ और संतशिरोमणि आचार्य प्रवर वास्तव में हकदार हैं ।