डॉ.हुकुमचंद भारिल्ल निबंध प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्त निबंध
The principle of karma in Jain philosophy.जैन दर्शन का कर्म सिद्धांत
Prof Anekant Kumar Jain अनेकांत कुमार जैन
karma : जैन धर्म ने मनुष्य के सुख तथा दुःख के कारणों की खोज की और पाया कि मनुष्य अपने सुख और दुःख का कारण स्वयं है। कोई दूसरा उसे सुखी या दुःखी कर ही नहीं सकता । निःसन्देह यदि कोई हमारा बुरा कर रहा है तो ये उसके स्वयं के बुरे karmaकर्म हैं किन्तु यदि वह इस कार्य में सफल हो रहा है तब यह हमारे बुरे karmas कर्मों का उदय है।
जैन दर्शन के अनुसार हमारे पूर्व संचित कर्मों के कारण ही हमें जीवन में अनुकूलतायें और प्रतिकूलतायें देखने को मिलती हैं। कोई जन्म से ही सोने की थाली में खाना खाता है तो किसी को दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करने में जिन्दगी लग जाती है। कोई जन्म से ही तीव्र बुद्धि वाला होता है तो कोई लाख कोशिश करे तो भी ज्ञान की बात उसके पल्ले नहीं पड़ती। भारतीय संस्कृति में यह सब पूर्वकृत पाप-पुण्य कर्म का फल माना जाता है।
karmaकर्म सिद्धांत जैनदर्शन की एक बहुत बड़ी देन है । कर्म को लेकर जितना सूक्ष्म विवेचन जैन ग्रंथों में मिलता है उतना अन्यत्र दुर्लभ है ।
karma कर्म का स्वरुप –
कर्म कैसे होते हैं उनका क्या स्वरुप होता है ? इस प्रश्न का उत्तर हमें शास्त्रों में मिलता है | राजवार्तिक में आचार्य अकलंकदेव कहते हैं कि ‘वीर्यान्तराय और ज्ञानावरण के क्षयोपशम की अपेक्षा रखने वाले आत्मा के द्वारा निश्चय नय से आत्मपरिणाम और पुद्गल के द्वारा पुद्-गलपरिणाम; तथा व्यवहारनय से आत्मा के द्वारा पुद्गलपरिणाम और पुद्गल के द्वारा आत्मपरिणाम, भी जो किये जायें वह कर्म हैं।कारणभूत परिणामों की प्रशंसा की विवक्षा में कर्तृधर्म आरोप करने पर वही परिणाम स्वयं द्रव्य और भावरूप कुशल-अकुशल कर्मों को करता है अत: वही कर्म है।‘[1] आप्तपरीक्षा में आचार्य विद्यानंद कहते हैं कि ‘जो जीव को परतन्त्र करते हैं अथवा जीव जिनके द्वारा परतन्त्र किया जाता है उन्हें कर्म कहते हैं अथवा जीव के द्वारा मिथ्यादर्शनादि परिणामों से जो किये जाते हैं—उपार्जित होते हैं वे कर्म हैं।‘ [2]
karmaकर्म के दो प्रमुख भेद –
सामान्य से कर्म एक ही है, उसमें कोई भेद नहीं है तथापि वे द्रव्य कर्म और भाव कर्म की अपेक्षा दो प्रकार के कहे जाते हैं ।[3] उसमें ज्ञानावरण आदि रूप जो पुद्गल द्रव्य का पिंड है वह द्रव्य कर्म है और उस द्रव्य पिंड में जो फल देने की शक्ति है वह भाव कर्म है अथवा कार्य में कारण का व्यवहार होने से उस शक्ति से उत्पन्न हुये जो अज्ञान आदि अथवा क्रोधादि रूप परिणाम हैं वे भी भावकर्म कहलाते हैं । इस कर्म के आठ भेद हैं अथवा इन्हीं आठों के एक सौ अड़तालीस या असंख्यात लोक प्रमाण भेद भी होते हैं ।
१.द्रव्य कर्मkarma –
सब शरीरों की उत्पत्ति के मूलकारण कार्माण शरीर को कर्म (द्रव्यकर्म) कहते हैं।[4]जीव के जो द्रव्यकर्म हैं वे पौद्गलिक हैं और उनके अनेक भेद हैं ।[5]
२.भाव कर्मkarma –
भावकर्म दो प्रकार का होता है—जीवगत व पुद्गलगत। भाव क्रोधादि की व्यक्तिरूप जीवगत भावकर्म है और पुद्गलपिंड की शक्तिरूप पुद्गल द्रव्यगत भावकर्म है। जैसे कि मीठे या खट्टे द्रव्य को खाने के समय जीव को जो मीठे खट्टे का विकल्प उत्पन्न होता है वह जीवगत भाव है; और उस व्यक्ति के कारणभूत मीठे-खट्टे द्रव्य की जो शक्ति है, वह पुद्गलद्रव्यगत भाव है।[6] यहाँ इस निबंध में हमें इस भावकर्म के जीवगत भेद को मुख्य रूप से समझना है ।
karmaकर्मों के आठ प्रकार
जैन दर्शन ने कर्मों को मुख्य रूप से आठ भागों में विभाजित करके समझाया है। उसके अनुसार कर्म की मूल रूप से आठ प्रकृतियाँ हैं, जो प्राणियों को अनुकूल और प्रतिकूल फल प्रदान करती हैं। वे आठ प्रकृतियाँ हैं –
(1) ज्ञानावरणी कर्म (2) दर्शनावरणी कर्म (3) वेदनीय कर्म (4) मोहनीय कर्म (5) आयु कर्म (6) नाम कर्म (7) गोत्र कर्म (8) अंतराय कर्म
इनमें वेदनीय, आयु, नाम तथा गोत्र कर्म अघातिया (स्वयं नष्ट होने वाले) हैं तथा शेष घातिया (नष्ट किये जाने वाले) कर्म हैं।
जैन धर्म के अनुसार कर्म एक अजीव तत्त्व है। यह तथ्य जैन कर्म सिद्धांत को उन भारतीय कर्म सिद्धांतों से अलग वैशिष्ट्य प्रदान करता है जहाँ कर्म का अर्थ मात्र किसी क्रिया से लिया जाता है और उसका कोई अचेतन पौदगलिक स्वरुप व्याख्यायित नहीं है । हमारे आसपास के वातावरण में पुद्गल परमाणुओं का घना जाल है। वे इतने सूक्ष्म होते हैं कि हमें दिखलाई नहीं देते । उन्हीं सूक्ष्म पुद्गल परमाणुओं में कुछ पुद्गल परमाणुओं की योग्यता कर्मों के रूप में बदल जाने की होती है। हमारी आत्मा में जो कि वास्तविक रूप से तो नितान्त शुद्ध है,किन्तु उसमें शुभ या अशुभ विभाव-भाव अक्सर उत्पन्न होते ही रहते हैं। हमारी आत्मा में ये भाव राग और द्वेष के कारण उत्पन्न होते हैं। जैसे ही विशुद्ध आत्मा में शुभ या अशुभ रूप विभाव उत्पन्न होते हैं, वैसे ही आस पास के कर्म रूप होने योग्य पुद्गल परमाणु आत्मा के इन विभावों का निमित्त पाकर आत्मा से चिपक जाते हैं और निश्चित समय के लिए वहाँ ठहर जाते हैं। फलतः आत्मा अशुद्ध हो जाता है और कर्मबद्ध कहा जाने लगता है। वस्तुतः आत्मा का स्वभाव तो ऊर्ध्वगमनत्व (ऊपर जाने वाला) है किन्तु कर्मों के कारण वह बोझिल हो जाता है और इस संसार में ही भटकता रहता है। स्वर्ग और नरक गति का कारण भी हमारे शुभ और अशुभ कर्म बनते हैं ।
karma: सुख दुःख का वास्तविक कर्त्ता कौन?
कर्म कभी शुद्ध नहीं होते। वे आत्मा को सुखी दुःखी कर देते हैं। कर्मों की इस विचित्र कहानी में जानने लायक बात यह है कि यह शृंखला अनादि काल से आत्मा के साथ चल रही है। हम पहले शुभ या अशुभ खुद ही भाव करते हैं और कर्म बाँधते हैं फिर जब ये ही कर्म अपना समय पूरा करके उदय में आते हैं तब हमें स्वयं ही सुखी या दुःखी कर देते हैं। अब यहाँ यह बात कहाँ से आयी कि किसी दूसरे ने हमें सुखी या दुःखी कर दिया। हाँ, दूसरे दुःख या सुख में निमित्त जरूर बनते हैं किन्तु अध्यात्म जगत में निमित्त को कर्त्ता व्यवहार की भाषा में ही कहा जाता है, वास्तव में वह कर्त्ता होता नहीं है। जैसे पत्थर से ठोकर लगे और हम गिर जायें तो पत्थर निमित्त होता है किन्तु गिरने और दुःख पाने के कर्त्ता हम स्वयं होते हैं। वहाँ पत्थर को दोष देने वालों को अज्ञानी ही कहा जायेगा। गहराई से देखें तो कर्म भी हमारे सुख दुःख रूप परिणाम के निमित्त ही हैं; असली कर्त्ता और भोक्ता तो हमारा चेतन स्वभावी आत्मा ही होता है ।
karmaकर्म क्या कर सकते हैं ?
एक बहुत प्रसिद्ध पंक्ति है – करम बड़े बलवान जगत में पेरत हैं ….,यद्यपि एक दृष्टि से यही समझा और कहा जाता है कि ये कर्म बहुत ताकतवर होते हैं ,ये अच्छों अच्छों को नहीं छोड़ते ,जगत में बलवान से बलवान जीव भी इसके वशीभूत है और यह जो चाहे उससे करवा सकते हैं ,चाहें तो सुखी कर दें और चाहें तो दुखी कर दें । कर्म सिद्धांत समझाते समझाते यह अवधारणा एकांत रूप से स्वतः विकसित हो गई और हमें पता ही नहीं चला । जब हम अपने हर अच्छे बुरे का दोष कर्मों पर दे रहे होते हैं तो चुपचाप स्वयं को बड़ी सफाई से बचा लेते हैं । बिना यह जाने कि अचेतन द्रव्य चेतन का कर्त्ता कैसे हो सकता है ? अपने दोषों पर हमारी दृष्टि ही नहीं जा पाती है ।
देखा जाय तो कर्मों की सत्ता जगत में होती ही नहीं यदि जीव के शुभाशुभ भाव नहीं होते |क्योंकि कर्म और उसके बंध का असली कारण हमारे स्वयं के अशुद्ध भाव हैं । सबसे प्राचीन मूल आगम कसायपाहुड में स्पष्ट लिखा है –
वत्थुं पडुच्च तं पुण अज्झवसाणं त्ति भणइ ववहारो ।
ण य वत्थुदो हु बंधो बंधो अज्झप्पजोएण ।[7]
यद्यपि वस्तु की अपेक्षा से अध्यवसान होते हैं, ऐसा व्यवहार प्रतिपादन करता है, परंतु केवल वस्तु के निमित्त से कर्मबंध नहीं होता, कर्मबंध तो आत्मपरिणामों (रागादि) से होता है । तत्त्वार्थसूत्र में कर्म बंध के लक्षण में कषाय को ही मूल कारण कहा है –
सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बंधः ।[8] कषायसहित होने से जीव कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है, वह बंध है । आचार्य कुन्दकुन्द इसे स्पष्ट करते हैं – भावणिमित्तो बंधो भावो रदिरागदो समोह जुद – कर्म बंध का निमित्त (हमारे)भाव है । और वे भाव रति-राग-द्वेष मोह से युक्त हैं ।[9]
जो खलु संसारत्थो जीवो तत्तोदुपरिणामो ।
परिणामादो कम्मं कम्मादो होदि गदिसु गदी ।।[10]
जो वास्तव में संसार-स्थित जीव है, उससे (स्निग्ध) परिणाम होता है । परिणाम से कर्म और कर्म से गतियों में भ्रमण होता है । वे समयसार में भी कहते हैं कि मिथ्यादृष्टि अपने उपयोग में रागादि भावों को करता हुआ कर्मरूपी रज से लिप्त होता है[11] –
एवं मिच्छादिट्ठी वट्टंतो बहुविहासु चिट्ठासु ।
रायाई उवओगे कुव्वंतो लिप्पइ रयेण ।।
आध्यात्मिक कवि बनारसीदास जी समयसार नाटक के बंधन द्वार में स्पष्ट लिखते हैं –
कर्मजाल वर्गणासौं जग में न बंधै जीव, बंधै न कदापि मन-वच-काय जोगसौं ।
चेतन –अचेतनकी हिंसा सौं ण बंधै जीव, बंधै न अलख पञ्च –विषैं –विष –रोग सों ।।
कर्मसौं–अबंधसिद्ध ,जोगसौं अबंध जिन ,हिंसा सौं अबंध साधु ग्याताविषैं भोगसौं ।
इत्यादिक वस्तु के मिलाप सौं न बंधै जीव , बंधै एक रागादि असुद्ध –उपयोगसौं ।।( 8/4 )
भावार्थ यह है कि जीव के कर्म बंध का कोई और कारण नहीं है बल्कि एक मात्र स्वयं जीव के रागादि अशुद्ध भाव हैं ,अतः दोष कर्मों का उतना नहीं है जितना हमारा स्वयं का है ।
इसीलिए कविवर रामचंद्र जी चन्द्रप्रभ पूजन की जयमाल में बहुत सुन्दर पंक्ति कहते हैं –
करम विचारे कौन भूलि मेरी अधिकाई ।
अगनि सहै घनघात लोह की संगति पाई ।।
ऐसे या वपुसंग सहे दुःख और न सेती ।
घनि बानी तुम देव सुनी गुरु के मुख एती ।।
हम कर्मों को कब तक दोष देते रहेंगे , भूल तो हमारी है ,यह सशरीरी होना ही मेरे दुःख का असली कारण है ,जिस प्रकार लोहे की संगति से शुद्ध अग्नि को भी घनघात व्यर्थ ही सहन करने पड़ते हैं ,वैसे ही मुझे भी दुखों की मार इस शरीर की संगति के कारण सहन करनी पड़ रही है ,ऐसा आपकी वाणी सुनकर ही पता चला है …. मोकूं दास विचारि करो वपुतें निरवारो ।।- मुझे इस शरीर से मुक्त अशरीरी बनना है अतः कवि का अंतर्मन कह उठता है –
तुम अनुकंप पसाय ,तजूं दुर ध्यान विकारो ।
वरनादिक तें भिन्न ,लखूं चिद्रूप हमारो ।।
जोतिस्वरूपी देव ,वसै याही घट मांही ।
ढूँढूं कौन सथान,लखूं तुम ध्यान उपाहीं ।।
मैं दुर्ध्यान रुपी विकार को छोड़ कर वर्णादि से सर्वथा रहित अपने चिद्रूप का ध्यान करूं क्योंकि जब ज्योति स्वरुप वह आत्मदेव मेरे अन्दर ही विद्यमान है तब मैं उसे अन्यत्र किस स्थान पर खोजूं ?आपके ध्यान रुपी उपाय से मैं उसे अपने अन्दर ही देख सकता हूँ ।
कर्म सिद्धांत द्विपक्षीय है ,उसके सिर्फ एक पक्ष को हमने जाना था अतः अधूरा ज्ञान हमें हमारी भूल जानने ही नहीं दे रहा था ,आज इसके अपर पक्ष को भी समझकर, हम अपनी इस भूल को सुधार कर ,कर्मों को आसानी से मात दे सकते हैं ।हम हमेशा कर्मों को अपना सबसे बड़ा शत्रु कहते और मानते आये हैं किन्तु देखा जाय तो मिथ्यात्व ,मोह ,राग द्वेष ही हमारे असली शत्रु हैं ,क्योंकि इनसे ही कर्म बंधते हैं । हम कार्य को देखते हैं जबकि हमें कारण को देखना चाहिए । एक कुशल चिकित्सक रोग को कम, रोग के कारण को ज्यादा देखता है तभी सही चिकित्सा कर पाता है ।
कर्मों को दोष दे दे कर यदि हम थक गए हों और समाधान नहीं हो पा रहा हो तो थोड़े अपने अवगुण भी निहार लें तो कुछ भला हो सकता है –
उम्र भर यही भूल मैं हर बार करता रहा,
धूल चेहरे पर थी, आईना साफ करता रहा !
I kept on repeating this mistake, throughout my life ,Dirt was on my face, kept on cleaning the mirror !
[1] वीर्यान्तरायज्ञानावरणक्षयक्षयोपशमापेक्षेण आत्मनात्मपरिणाम: पुद्गलेन च स्वपरिणाम: व्यत्ययेन च निश्चयव्यवहारनयापेक्षया क्रियत इति कर्म। करणप्रशंसा विवक्षायां कर्तृधर्माध्यारोपे सति स परिणाम: कुशलमकुशलं वा द्रव्यभावरूपं करोतीति कर्म।- रा.वा./६/१/७/५०४/२६
[2] जीवं परतन्त्रीकुर्वन्ति, स परतन्त्री क्रियते वा यस्तानि कर्माणि, जीवेन वा मिथ्यादर्शनादिपरिणामै: क्रियन्ते इति कर्माणि।- आप्तप./टी./११३/२९६ तथा भ.आ./वि./२०/७१/८ लक्षण नं. २ ।
[3] कर्माणि द्विविधान्यत्र द्रव्यभावविकल्पत:।- आप्तपरीक्षा /मू./११३
तथा कम्मत्तणेण एक्कं दव्वं भावोत्ति होदि दुविहं तु |- गोम्मटसार कर्मकांड /मू./६/६
[4] सर्वशरीरप्ररोहणबीजभूतं कार्मण शरीरं कर्मेत्युच्यते। – सर्वार्थसिद्धि /२/२५/१८२/८
[5] द्रव्यकर्माणि जीवस्य पुद्गलात्मान्यनेकधा | – आप्त.प./मू./११३
[6] भावकर्म द्विविधा भवति। जीवगतं पुद्गलकर्मगतं च। तथाहि-भावक्रोधादिव्यक्तिरूपं जीवभावगतं भण्यते। पुद्गलपिण्डशक्तिरूपं पुद्गलद्रव्यगतं। ………………..अत्र दृष्टान्तो यथा—मधुरकटुकादिद्रव्यस्य भक्षणकाले जीवस्य मधुरकटुकस्वादव्यक्तिविकल्परूपं जीवभावगतं, तद्वयक्तिकारणभूतं मधुरकटुकद्रव्यगतं शक्तिरूपं पुद्गलद्रव्यगतं। एवं भावकर्मस्वरूपं जीवगतं पुद्-गलगतं च द्विधेति भावकर्म व्याख्यानकाले सर्वत्र ज्ञातव्यम् । – समयसार./ता.वृ./१९०-१९२
[7] कषायपाहुड़/1/1,1/गा. 51/105
[8] तत्त्वार्थसूत्र/8/2
[9] पंचास्तिकाय/148तथा प्रवचनसार/179
[10] पंचास्तिकाय/128
[11] समयसार /241