CELIBACY OF HOUSEHOLDERS : CHALANGES  AND SOLUTIONS

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 CELIBACY OF HOUSEHOLDERS : CHALANGES   AND SOLUTIONS

                   

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        गृहस्थ ब्रह्मचर्य CELIBACY : वर्तमान चुनौतियाँ और समाधान 

        (ब्रह्मचर्य अणुव्रत अतिचार के सन्दर्भ में )                                                              

                                                                      -प्रो अनेकांत कुमार जैन ,नई दिल्ली

पर द्रव्यों से नितांत भिन्न  शुद्ध बुद्ध अपने आत्मा अर्थात् ब्रह्म में लीनता ही ब्रह्मचर्य  CELIBACY  धर्म है ।[1]ब्रह्मचर्य व्रत  CELIBACY को सभी व्रतों में श्रेष्ठ व्रत कहा गया है । मुनि इसे महाव्रत के रूप में तथा गृहस्थ इसे अणुव्रत के रूप में पालते हैं ।इन्द्रियों के विषयों का सेवन करते रहने से अपने अतीन्द्रिय आत्म स्वरूप का अनुभव नहीं हो पाता है । इन्द्रिय विषयों में आसक्ति अब्रह्मचर्या है ।

दो में से एक कार्य ही संभव है या तो इन्द्रिय भोग या ब्रह्मलीनता । जो पांच इंद्रियों में लीन है वह आत्मा में लीन नहीं है जो आत्मा में लीन है वह पांच इंद्रियों में लीन नहीं है । हम यह कह सकते हैं कि पंचेंद्रिय विषयों से निवृत्ति नास्ति से और आत्मलीनता अस्ति से  CELIBACY  ब्रह्मचर्य धर्म की परिभाषा है ।

मुख्य रूप से स्पर्श इन्द्रिय के विषयों में स्वयं को संयमित रखने को ब्रह्मचर्य इसलिए कहा जाता है क्यों कि यह इन्द्रिय सबसे व्यापक है और शेष चार इन्द्रियां भी  किसी न किसी रूप में इससे संबंधित हैं ।

व्यवहार से गृहस्थ जीवन में धर्म एवं समाज द्वारा स्वीकृत,विवाह संस्कार द्वारा प्राप्त जीवन साथी के साथ संतोष रखना तथा अन्य समस्त व्यभिचारी प्रवृत्तियों से दूर रहना ब्रह्मचर्य अणुव्रत है ।[2]

शास्त्रों में शील की रक्षा का बहुत वर्णन किया गया है । स्त्री पुरुष दोनों को ही शील की मर्यादा का पालन करते हुए धर्म मार्ग में सदैव तत्पर रहना चाहिए ।

वर्तमान समाज में शील और मर्यादा को पिछड़ापन समझा जा रहा है , उन सभी प्रकार के निमित्त को स्वीकृति प्राप्त हो रही है जो मान मर्यादा भंग करने में तत्पर रहते हैं ।
शील की मर्यादा के अभाव में परिवार टूट रहे हैं , अविश्वास का वातावरण समाज को खंडित कर रहा है ।

ऐसे संसाधन सहज उपलब्ध हैं जो बाल मन में भी कामुकता का बीज वपन कर रहे हैं । सारा संसार कामुकता को पुरुषार्थ समझ रहा है । असंयमित और उन्मुक्त भोग ही एक मात्र लक्ष्य माना जा रहा है । पवित्र समझे जाने वाले कुछ अनैतिक धार्मिक साधु भी जब इस कलंक से वंचित नहीं हैं तब सामान्य गृहस्थों की तो बात ही क्या ?हम इसके दुष्परिणाम भी भोग रहे हैं लेकिन चेत नहीं रहे हैं ।

ऐसे विकट समय में ब्रह्मचर्य  CELIBACY की  शास्त्र सम्मत किन्तु वर्तमान समय के अनुकूल व्यावहारिक परिभाषा की आवश्यकता है । यह समझने की आवश्यकता है कि बिना आत्मलीनता के बाह्य ब्रह्मचर्य भी कोरा व्रत मात्र है जिसका कोई आध्यात्मिक धरातल नहीं है , मात्र वासनाओं को दबाना बड़ा विस्फोटक हो जाता है ।

वासना का अभाव ही उत्तम ब्रह्मचर्य की परिधि में आता है । वासना की संतुलित और संयमित परिणति अणुव्रत के अन्तर्गत आती है ।वासनाओं को दबाना और वासनाओं से दबना दोनों ही असहज अवस्था है ।

ब्रह्मचर्य एक धर्म है , वह दिखावा या सम्मान का लालसी नहीं है  । वह एक ऐसी आत्मिक अतीन्द्रिय अनुभूति है जहां इन्द्रिय सुख की समस्त अनुभूतियां स्वतः ही तुच्छ लगने लगती हैं ।

 CELIBACY ब्रह्मचर्य प्रतिमा-

जो मल के बीजभूत, मल को उत्पन्न करने वाले, मलप्रवाही, दुर्गंधयुक्त, लज्जाजनक वा ग्लानियुक्त अंग को देखता हुआ काम-सेवन से विरक्त होता है, वह सप्तम ब्रह्मचर्य प्रतिमा का धारी ब्रह्मचारी है।[3] श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं में दूसरी व्रत प्रतिमा में ब्रह्मचर्य अणुव्रत लेते है,जिसमे वह अपनी पत्नी/पति के अतिरिक्त सभी को मां/पिता,बेटी/पुत्र,बहन/भाई तुल्य समझूंगा/समझूंगी! इस सातवीं प्रतिमा में वह प्रतिमाधारी अपनी पत्नी/पति के साथ भी काम सेवन का त्याग करता/करती है | अब वह पत्नी/पति के साथ एक कमरे में भी नहीं रहेगा, शयन की बात तो बहुत दूर की है | वह स्त्री सम्बन्धी कथा का भी त्याग कर देता है |[4]

 CELIBACY ब्रह्मचर्य व्रत की भावना –

गृहस्थ अवस्था में एक देश ब्रह्मचर्य का पालन किया जाता है | इसे स्वदार संतोष व्रत भी कहते हैं अर्थात् अपनी पत्नी या पति के अतिरिक्त अन्यत्र भोग दृष्टि न रखना | व्रत की सुरक्षा और वृद्धि के लिए तत्त्वार्थ सूत्र में ब्रह्मचर्य व्रत की पांच भावनाओं का उल्लेख है[5]

1.स्त्रियों में प्रीति उत्पन्न कराने वाली कथाओं को सुनने का त्याग।

2.स्त्रियों के मनोहर अंगों को रागसहित देखने का त्याग।

3.पूर्व काल में किये हुए विषय भोगों को स्मरण करने का त्याग।

  1. काम उद्दीपन करने वाले पुष्टिकर व इन्द्रियों की लालसा उत्पन्न करने वाले रसों का त्याग।

5.शरीर के श्रृंगार युक्त करने का त्याग।

 CELIBACY ब्रह्मचर्य अणुव्रत के अतिचार –
वे क्रियाएं जिनसे अणुव्रतों में दोष उत्पन्न हो जाये वे अतिचार हैं |  तत्त्वार्थसूत्र में ब्रह्मचर्य अणुव्रत  के पाँच अतिचार बताये हैं [6] –

1.परविवाहाकरण

  1. परिगृहीतेत्वरिकागमन

3.अपरिगृहीतेत्वरिकागमन

4.अनंगक्रीड़ा

5.कामतीव्राभिनिवेश

उपासकदशांगसूत्र में भी तत्वार्थसूत्र की भांति कुछ क्रम भेद से यही पांच अतिचार गिनाये हैं |[7]

आचार्य समन्तभद्र ने भी थोडा परिवर्तन के साथ पांच अतिचार गिनाये हैं –

अन्यविवाहाकरणानङ्‍गक्रीडाविटत्वविपुलतृषः

इत्वरिकागमनं चास्मरस्य पञ्च व्यतीचाराः ॥[8]

  • अन्यविवाहाकरण –  कन्यादान को विवाह कहते हैं । अपनी या अपने आश्रित बन्धुजनों की सन्तान को छोडक़र अन्य लोगों की सन्तान का विवाह प्रमुख बनकर करना, वह अन्य विवाहाकरण है । किन्तु सहधर्मी भाई के नाते उनके विवाह में सम्मिलित होने में कोई निषेध नहीं है ।[9]
  • अनंगक्रीडा  – कामसेवन के निश्चित अंगों को छोडक़र अन्य अंगों से क्रीड़ा करना ।[10]
  • विटत्व  – शरीर से कुचेष्टा करना और मुख से अश्‍लील भद्दे शब्दों का प्रयोग करना विटत्व है ।[11]
  • विपुलतृषा  – कामसेवन की तीव्र अभिलाषा रखना विपुलतृषा है ।[12]
  • इत्वरिकागमन  – परपुरुषरत व्यभिचारिणी स्त्री को इत्वरिका कहते हैं । ऐसी स्त्रियों के यहाँ आना-जाना, उनके साथ उठना-बैठना तथा व्यापारिक सम्पर्क बढ़ाना आदि इत्वरिका गमन है  ।[13]

आचार्य समन्तभद्र ने इत्वरिका गमन में परिगृहीता और अपरिगृहीता दोनों को गर्भित करके विटत्व नामक एक नया अतिचार गर्भित कर लिया है | विपुल तृषा और कामतीव्राभिनिवेश

लगभग एक ही अर्थ में हैं अतः यह नवीन नहीं हैं |

सप्त व्यसनों में भी वेश्या गमन और परस्त्री गमन ये दो व्यसन गर्भित है जिनका सम्बन्ध उन दोनों प्रकार की इत्वारिकाओं से है जिनका उल्लेख तत्त्वार्थसूत्र में है |मद्य,मांस का सेवन भी इस ही के समान माना गया है [14]

जे मज्जमंसदोसा वेस्सा गमणम्मि होंति ते सव्वे ।

पावं पि तत्थ-हिट्ठं पावइ णियमेण सविसेसं ।।

पावेण तेण दुक्खं पावइ संसार-सायरे घोरे,

तम्हा परिहरियव्वा वेस्सा मण-वयण-काएहि ।।

अर्थात् जो दोष मद्य-मांस के सेवन में होते हैं, वे सब दोष वेश्यागमन में भी होते हैं । इसलिए वह मद्य और मांस सेवन के पाप को तो प्राप्त होता ही है, किंतु वेश्यासेवन के विशेष अधर्म को भी नियम से प्राप्त होता है । वेश्यासेवन जनित पाप से यह जीव घोर संसारसागर में भयानक दुःखों को प्राप्त होता है, इसलिए मन, वचन और काय से वेश्या का सर्वथा त्याग करना चाहिए ।

अतः सप्त व्यसन का त्याग वह श्रावक भी करता है जिसने अणुव्रत अंगीकार नहीं किये हैं |

वर्तमान सन्दर्भ –

अतिचारों में जो बातें गिनाई गई हैं वे न सिर्फ मनुष्य के आत्मकल्याण में बाधक हैं बल्कि समाज और कानून की दृष्टि से भी दोषपूर्ण है अतः इन पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है | मुझे ऐसा लगता है कि अतिचारों के भेद अनंत हो सकते हैं किन्तु आगम में प्रतिनिधि स्वरुप पांच ही गिनाये हैं |मैं थोडा साहस करके वर्तमान की विसंगतियों को देखते हुए इन पांच अतिचारों की आधुनिक दृष्टि से व्याख्या और समीक्षा करना चाहता हूँ |

अतिचार –

अतिचार शब्द से बोध होता है कि अभी दोष लगा है व्रत भंग नहीं हुआ है अतः जिन अतिचारों के नाम गिनाये गएँ हैं उनमें इत्वरिकागमन तो ऐसा लग रहा है कि वह तो व्रत भंग कर रहा है | और भी कई समस्याएं हैं जिन पर विचार अपेक्षित है |यद्यपि अभी ये गृहस्थों के लिए कहा है किन्तु साधु वर्ग भी इनसे लाभान्वित हो सकता है क्यों कि उनकी भूमिका एक श्रावक या गृहस्थ से कहीं ऊँची है अतः ये नियम तो उनके लिए पूर्व से ही गर्भित हैं ,या यूँ कहें कि साधु वर्ग तो गृहस्थ अवस्था में इन नियमों का अभ्यास करके ही साधु हुआ है | वे यहाँ शांति से यह विचार अवश्य करें कि यदि वे श्रावक के इन नियमों का भी पालन करने की योग्यता नहीं रखते हैं तो क्या उन्हें साधु पद पर रहने का अधिकार है ?

                   आचार्य समन्तभद्र द्वारा प्रतिपादित पांच अतिचारों को आधार बनाकर यहाँ चर्चा करते हैं |

 अन्यविवाहाकरण – 

             अणुव्रतधारी गृहस्थ को सामाजिक दृष्टि से यह प्रावधान तो किया है कि वह अपनी और अपने परिवार की  संतानों का विधि पूर्वक विवाह आदि कार्य संपन्न करे किन्तु यदि वह अन्य लोगों की संतानों के विवाह की चिंता करता है या सहयोग करता है तो उसे दोष लगता है | कहने का तात्पर्य यह है कि एक अणुव्रती को यह शोभा नहीं देता कि वह मेरिज व्यूरो खोल ले |

            समस्या –

  • अन्य के विवाह नहीं करेंगे या उसमें सहयोग नहीं करेंगे तो आपके संतान से कौन करेगा ?
  • सामाजिक दृष्टि से समाज के अन्य साधर्मियों के सहयोग की भावना होना अपराध है क्या ?
  • जैन समाज में नए युवा और युवती अन्य धर्मों और विजातियों में विवाह कर रहे हैं ,इससे उसे बढ़ावा मिलेगा |
  • एक अच्छा साधर्मी वर या बधू मिलना – धर्म संस्कृति को सुरक्षित करने का साधन है ,उसका क्या होगा ?
  • आप स्वयं अपनी संतान के लिए योग्य जीवनसाथी खोजते समय अन्य से मदद की अपेक्षा करते हैं तब सभी आपके साथ सहयोग नहीं करें तब ?

             समाधान

  • यह अतिचार अणुव्रती का है जो पंचम गुणस्थानवर्ती है | सामान्य गृहस्थ मात्र सप्त व्यसन का त्यागी है |सामान्य गृहस्थों की संख्या अधिक है ,वे साधर्मी विवाह की अनुमोदना और सहयोग करते हैं |
  • कोई सामान्य सद्गृहस्थ इस बात से परिचित होगा कि विवाह आदि प्रसंगों में सहयोग एक सीमा तक ही उचित रहता है ,विवाह सम्बन्ध मूलतः भाग्याधारित होते हैं ,अतः मध्यस्थ श्रावक को दुष्परिणाम भी भोगने पड़ते हैं ,यदि आपके सहयोग से विवाह सम्बन्ध हो गया और सफल रहा तो आपको कोई भी धन्यवाद नहीं देगा और उपकार नहीं मानेगा किन्तु यदि दुर्भाग्य से विवाह सफल नहीं हुआ या और कोई समस्या आ गई तो सारा आरोप माध्यस्थ को भोगना पड़ता है | और इस तरह के कभी न सुलझने वाले सामाजिक प्रपंच के चक्कर में एक अणुव्रती साधक का उपयोग भ्रमित होता और उसके स्वाध्याय आदि अन्य साधना में व्यवधान होता है अतः उसे इससे थोडा बचना ही श्रेयस्कर है |

अतिचार में अति शब्द जुड़ा है अतः सामान्य श्रावक जो अणुव्रती नहीं है , अन्य विवाह में सहयोग कर सकता है किन्तु अति सर्वत्र वर्जयेत् – अतः अति न करे –यह आशय है |

अनंगक्रीडा –

           एक गृहस्थ के विवाह का एक मात्र उद्देश्य है – संतानोत्पत्ति | इसके लिए बाकायदा शास्त्र की अनुमति है उसे मैथुन क्रिया करने की | किन्तु यहाँ यह विचारणीय है कि मैथुन क्रिया में प्रयुक्त अंगों को छोड़कर अन्यत्र अप्राकृतिक रूप से मैथुन क्रिया करना –संतानोत्पत्ति में नियामक कारण नहीं है | शास्त्रों की टीकाओं में अनंग क्रीडा का अर्थ मुख चुम्बन , स्तन मर्दन आदि आदि क्रियाओं से लगाया गया है किन्तु ये विचारणीय इसलिए हैं कि ये मैथुन क्रिया का ही अंग स्वीकार किये जा सकते हैं |स्त्री पुरुष की मात्र यौन क्रिया ही नहीं बल्कि परस्पर स्पर्श करने की भावना मात्र मैथुन कहलाता है |[15]मैथुन क्रिया जब निषिद्ध है तब निषिद्ध है किन्तु जब वह करणीय है तब उसमें ये उपक्रियाएं उसके अंग के रूप में स्वीकार्य करनी चाहिए | ऐसा नहीं करने से हम अनंग क्रीडा के उस अभिप्राय को समझने से दूर हो जाते हैं जो उसमें विचारणीय है |

           मैं अनंग क्रीडा का जो अर्थ समझ रहा हूँ वह है लिंग – योनि के स्वाभाविक संपर्क के अतिरिक्त उनका  अन्यथा प्रयोग | जैसे – 1. पुरुष का पुरुष से सम्बन्ध 2. स्त्री का स्त्री से सम्बन्ध 3.दोनों का ही तिर्यन्चों से सम्बन्ध 4.दोनों की हस्तक्रिया आदि आदि | यहाँ मात्र काम वासना की पूर्ती ही उद्देश्य है ,संतानोत्पत्ति नहीं अतः यह अतिचार है |वर्तमान में जो गे –सम्बन्ध और उनके विवाह की वैधानिक स्वीकृति की बात हो रही है ,इसका सम्बन्ध उससे भी है |

विटत्व  –

       सिर्फ व्रती ही नहीं बल्कि एक सभ्य समाज में विटत्व तो सामाजिक और राष्ट्रीय मर्यादा के भी खिलाफ है,अतःअभद्र और अश्लील वस्त्र पहनना और अश्लील ,द्विअर्थी संवाद ,इशारे आदि करना जब एक सामान्य गृहस्थ के लिए ही शोभनीय नहीं है तो अणुव्रती के लिए तो महापाप है ,इससे उसके व्रत भंग होने की पूरी सम्भावना है अतः यह पूर्णतः त्याज्य है |

विपुलतृषा –

         संतानोत्पत्ति के पावन उद्देश्य से मैथुन आदि क्रिया कामाभिलाषा के साथ ही संपन्न हो पाती है |किन्तु उस काल के अतिरिक्त रात दिन उससे ग्रसित रहना बहुत बड़ा रोग है | काम जीवन का एक पुरुषार्थ है किन्तु उसकी भी मर्यादा और समय सीमा है ,अन्य पुरुषार्थ भी जीवन के अभ्युदय के लिए आवश्यक हैं | वर्तमान में कामोत्तेजना को ही मात्र पुरुषार्थ माना जा रहा है – यह एक बहुत बड़ी विकृति है जो अन्यान्य विकृतियों को जन्म दे रहीं हैं |

इत्वरिकागमन  –

ऐसी स्त्रियों या पुरुषों से ज्यादा मेल जोल रखना ,या उनके घर जाना या उनसे रमण का विचार करना  यह अतिचार है अतः दोषपूर्ण है  किन्तु यदि इस तरह की या सामान्य पर-स्त्री पुरुष के साथ यौन सम्बन्ध रखना ,अतिचार नहीं व्यभिचार है और वह व्रत भंग की श्रेणी में आता है |

इस प्रकार यहाँ आधुनिक परिप्रेक्ष्य में और अधिक विचार किया जा सकता है |

[1] आत्मा ब्रह्म विविक्तबोधनिलयो यत्तत्र चर्यं पर ।

स्वांगासंगविवर्जितैकमनस्तद्ब्रह्मचर्यं मुनेः ।। – ब्रह्म शब्द का अर्थ निर्मल ज्ञानस्वरूप आत्मा है, उस आत्मा में लीन होने का नाम

ब्रह्मचर्य है। जिस मुनि का मन अपने शरीर के भी संबंध में निर्ममत्व हो चुका है, उसी के ब्रह्मचर्य होता है।- पद्मनन्दि पंचविंशतिका/12/2

[2] न तु परदारान् गच्छति न परान् गमयति च पापभीतेर्यत् ।

   सा परदारनिवृतिः स्वदारसंतोषानामपि ।। जो पाप के भय से न तो पर स्त्री के प्रतिगमन करै और न दूसरों को गमन करावै, वह परस्त्री-त्याग तथा स्वदार-संतोष नाम का अणुव्रत है ।- रत्नकरण्ड श्रावकाचार/59

[3] मलबीजं मलयोनिं गलन्मलं पूतिगंधिवीभत्सां पश्यन्नंगमनंगाद्विरमति यो ब्रह्मचारी सः ।।

                                                                                         रत्नकरंड श्रावकाचार/143

[4] पुव्वुत्तणवविहाणं पि मेहुणं सव्वदा विवज्जंतो ।

   इत्थिकहाइणिवित्तो सत्तमगुणवंभयारी सो ।।जो पूर्वोक्त नौ प्रकार के मैथुन को सर्वदा त्याग करता हुआ स्त्रीकथा आदि से भी निवृत्त हो जाता है, वह सातवीं प्रतिमारूप गुणका धारी ब्रह्मचारी श्रावक है ।

                                                                                                   – वसुनंदी श्रावकाचार/297

[5] स्त्रीरागकथाश्रवणतन्मनोहरांगनिरीक्षणपूर्वरतःनुस्मरणवृष्येष्टरसस्वशरीरसंस्कारत्यागाः पंच ।-तत्त्वार्थसूत्र/7/7

[6] परविवाहकरणेत्वरिकापरिगृहीतापरिगृहीतागमनानंगक्रीडाकामतीव्राभिनिवेशाः।–

-तत्त्वार्थसूत्र/7/28 , महापुराण 20.164, हरिवंशपुराण 58. 121, 174, पांडवपुराण 9.86

[7] उपासकदशांगसूत्र 1/44

[8] रत्नकरंड श्रावकाचार ,श्लोक ६०

[9] कन्यादानं विवाहोऽन्यस्य विवाहोऽन्यविवाह: तस्य आ समन्तात् करणं | – आचार्य प्रभाचंद्र संस्कृत टीका

[10] अनङ्गक्रीडा च अङ्गं लिङ्गं योनिश्च तयोरन्यत्र मुखादिप्रदेशे क्रीडा अनङ्गक्रीडा । – वही

[11] विटत्वं भण्डिमाप्रधानकायवाक्प्रयोग: ।- वही

[12] विपुलतृट् च कामतीव्राभिनिवेश: ।– वही

[13] इत्वरिकागमनं च परपुरुषानेति गच्छतीत्येवंशीला इत्वरी पुंश्चली कुत्सायां के कृते इत्वरिका भवति तत्र गमनं चेति ॥– वही

[14] वसुनंदी श्रावकाचार गाथा 92-93

[15] स्त्रीपुंसयोश्चारित्रमोहोदये सति रागपरिणामाविष्टयोः परस्परस्पर्शनं प्रति इच्छा मिथुनम् । मिथुनस्य भावं मैथुनमित्युच्यते । चारित्रमोह का उदय होने पर राग परिणाम से युक्त स्त्री और पुरुष के जो एक दूसरे को स्पर्श करने की इच्छा होती है वह मैथुन कहलाता है । – सर्वार्थसिद्धि/7/16/353/10  राजवार्तिक /7/16/543/29 ;

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