Acharya Shantisagar : आचार्य शान्तिसागर जी महाराज के आध्यात्मिक उपदेशों का वैशिष्ट्य

Acharya Shantisagar : आचार्य शान्तिसागर जी महाराज के आध्यात्मिक उपदेशों का वैशिष्ट्य

प्रो.अनेकांत कुमार जैन

आचार्य – जैनदर्शन विभाग

श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय , नई दिल्ली

दिगंबर जैनधर्म के इतिहास में अनेक तेजस्वी आचार्य एवं तपस्वियों ने आत्मकल्याण ,धर्म की प्रभावना,प्रचार एवं जीव मात्र के कल्याण हेतु अपना सम्पूर्ण जीवन अर्पित किया है । मुग़ल शासन के अनंतर जब दिगम्बर जैन साधु परम्परा लगभग विलुप्ति के कगार पर थी, तब एक दिव्य पुरुष Acharya Shantisagar आचार्य शान्तिसागर जी महाराज ने उस परम्परा को पुनर्जीवित किया । उन्हें ‘चारित्र चक्रवर्ती’ की उपाधि इसलिए मिली क्योंकि उन्होंने जीवन के प्रत्येक क्षण में संयम, तप, आत्मचिंतन और अहिंसा के व्रत को जीकर दिखाया । उनके उपदेश न केवल आध्यात्मिक गूढ़ता से परिपूर्ण हैं, बल्कि व्यवहारिक जीवन में शान्ति, सदाचार एवं आत्मकल्याण की प्रेरणा भी देते हैं । वे न केवल एक वीतरागी तपस्वी दिगंबर जैन आचार्य थे, अपितु संपूर्ण युग के लिए प्रेरणा स्रोत थे । उनके उपदेश केवल वाणी नहीं थे, बल्कि आत्मा की पुकार थे — जो आज भी हृदय में गूंजते हैं, चेतना को झकझोरते हैं, और जीवन को दिशा देते हैं।

यहाँ मैं उनके उपदेशों के प्रमुख अंशों को शांतिवचन शीर्षक से संकलित कर उसका विश्लेषण और उनसे प्राप्त प्रेरणा को बताने का प्रयास कर रहा हूँ –

  1. आत्मा-पुद्गल का विवेचन और आत्मचिन्तन की अपरिहार्यता

शांतिवचन –“हे आत्मन्! तू अनन्त ज्ञानस्वरूप है, तू पुद्गल का दास क्यों बना हुआ है?”Acharya Shantisagar

“जीव और पुद्गल भिन्न हैं।” यही जैन दर्शन का सार है। परंतु दुख की बात यह है कि जीव आज भी पुद्गल के पीछे दौड़ रहा है, आत्मा को विस्मृत कर रहा है। आचार्य श्री की पुकार है — ““जीव का पक्ष ग्रहण करने पर पुद्गल का घात होता है; पुद्गल का पक्ष लेने पर आत्मा का घात होता है।”Acharya Shantisagar यह वाणी हमें आत्मचिन्तन की ओर लौटने को विवश कर देती है।

यह वाक्य आचार्य श्री के सम्पूर्ण दर्शन का सार है। वे बार-बार इस बात पर बल देते हैं कि आत्मा और पुद्गल (पदार्थ) मूलतः भिन्न हैं। आत्मा चेतन है, ज्ञान-दर्शन से सम्पन्न है, जबकि पुद्गल जड़ है। परंतु मोह के कारण जीव पुद्गल के पीछे दौड़ता है और आत्मा का घात करता है। अतः उनका उपदेश है — “आत्मचिन्तन ही मोक्ष का मार्ग है।“Acharya Shantisagar

आचार्य श्री की यह वाणी आत्मा की स्वायत्तता और मोक्षमार्ग की निःसंगता को रेखांकित करती है। आज के भौतिकतावादी युग में यह उपदेश आत्मविकास की स्पष्ट दिशा देता है ।

  1. संयम की महिमा और मुनिधर्म की कठिनता

शांतिवचन –

“मुनिधर्म बहुत कठिन है… मुनिपद में चरित्र को बराबर पालना चाहिए।”Acharya Shantisagar

आचार्य श्री का यह कथन मुनिधर्म के वास्तविक स्वरूप को स्पष्ट करता है । वे केवल वैराग्य के दिखावे के विरोधी थे । उनका कहना था कि संयम में प्रमाद की तनिक भी गुंजाइश नहीं।

“मुनिधर्म बहुत कठिन है,” तो यह केवल चेतावनी नहीं, आत्मशुद्धि का आह्वान है। यह जीवन तलवार की धार पर चलने जैसा है। संयम की रक्षा के लिए उन्हें अपने जीवन का प्रत्येक क्षण सावधान रहना पड़ा। उनका जीवन हमें सिखाता है कि संयम केवल व्रत नहीं, वह आत्मा का श्रृंगार है।

यह दृष्टिकोण दिगम्बर साधु जीवन की कठिन साधना को सिद्ध करता है और साथ ही प्रेरणा देता है कि त्याग और तप के बिना आत्मोन्नति असम्भव है।

  1. सम्यक्त्व और संयम – मोक्ष का द्वार

शांतिवचन –

“दर्शन मोहनीय कर्म का नाश कर सम्यक्त्व प्राप्त करो। चारित्र मोहनीय कर्म का नाश कर संयम धारण करो।”Acharya Shantisagar

शांतिवचन –“मोक्ष केवल आत्मचिन्तन से मिलता है।” इस कथन में इतनी शक्ति है कि यह समस्त बाह्य आडंबरों को ध्वस्त कर देता है। उन्होंने हमें दिखाया कि मंदिर, तीर्थ, दान, पूजा ये सब तब तक अधूरे हैं जब तक आत्मा में जागरण नहीं होता।

आचार्य श्री स्पष्ट रूप से कहते हैं कि केवल दान, पूजा, तीर्थ यात्रा से मोक्ष नहीं मिलता, बल्कि आत्मचिन्तन और संयम ही मोक्ष के वास्तविक साधन हैं। यह उपदेश साधन और साध्य की शुद्धता पर प्रकाश डालता है। इसमें केवल क्रियाओं के आडंबर को नकारा गया है और आन्तरिक रूपान्तरण को प्रमुख स्थान दिया गया है।

  1. सम्यक्त्व की पहचान – आस्तिक्य गुण

शांतिवचन –

“प्रशम, संवेग, अनुकम्पा – ये तीनों मिथ्यात्वी में भी दिख सकते हैं, पर आस्तिक्य गुण केवल सम्यक्त्वी में होता है।”Acharya Shantisagar

सम्यक्त्व की पहचान उन्होंने आस्तिक्य गुण में बताई। वे कहते हैं  “श्रद्धा वह दीप है जो अंधकार को चीर देता है।”Acharya Shantisagar सम्यक्त्व केवल बौद्धिक ज्ञान नहीं, बल्कि भीतर की ज्वाला है जो आत्मा को सत्य की ओर ले जाती है।

आचार्य श्री सम्यक्त्व की परीक्षा को केवल बाह्य व्यवहार से नहीं बल्कि आस्तिक्य गुण अर्थात् जिनवाणी पर अडिग श्रद्धा से मापते हैं । यह शिक्षा जैन तत्त्वज्ञान की गहराई को प्रकट करती है और बताती है कि श्रद्धा के बिना ज्ञान अधूरा है।

  1. शिथिलाचार का विरोध और आत्मावलोकन की प्रेरणा

शांतिवचन –

“लोग कहते हैं जमाना खराब है । मैं कहता हूँ तुम्हारी बुद्धि खराब हो गई है।”Acharya Shantisagar

आचार्य श्री का यह कटाक्ष केवल व्यंग्य नहीं बल्कि आत्मावलोकन का आह्वान है । वे मानते थे कि युग दोष नहीं, अपितु व्यक्तिगत सोच की भ्रान्तियाँ ही अधःपतन का कारण हैं।”जमाना नहीं, तुम्हारी बुद्धि खराब हो गई है,” तब यह वाक्य गूंजता नहीं, सीधा अंतःकरण को भेदता है। यह हमें अपनी ही कमियों से साक्षात्कार कराता है। वे हमें युग को दोष न देकर आत्मपरिवर्तन का मार्ग दिखाते हैं।

आत्म-सुधार के बिना कोई भी बाह्य व्यवस्था परिवर्तन सफल नहीं हो सकती — यह शिक्षा किसी भी सामाजिक क्रांति के लिए आदर्श है।

  1. व्यवहार और निश्चय – दोनों की सामंजस्यपूर्ण साधना

शांतिवचन –

“व्यवहार फूल के सदृश है और निश्चय फल के । फल के विकास के साथ-साथ फूल संकुचित होता जाता है।”Acharya Shantisagar

उन्होंने व्यवहार और निश्चय को फूल और फल की तरह बताया। यह दृष्टान्त इतना सुंदर है कि व्यवहारिक जीवन और आत्मसाधना के बीच सामंजस्य की अद्वितीय मिसाल बन जाता है।

यह दार्शनिक उपमा आचार्य श्री के गहन चिन्तन को दर्शाती है। व्यवहार की उपेक्षा करके केवल निश्चय को पकड़ना, या व्यवहार में रमे रहकर निश्चय को भुलाना — दोनों ही भ्रम हैं।फल के विकास साथ फूल स्वयमेव संकुचित होता है उसे करना नहीं पड़ता , जैसे जैसे निश्चय का विकास होता है ,व्यवहार स्वयमेव तिरोहित होता जाता है ।

यह शिक्षा अद्वितीय है, जो व्यवहारिकता और अध्यात्म के समन्वय की बात करती है। यह जैन दर्शन के ‘नयवाद’ की सजीव व्याख्या है।

  1. आत्मसाक्षात्कार का साधन – आत्मचिन्तन

शांतिवचन –

“मोक्ष केवल आत्मचिन्तन से मिलेगा। और किसी क्रिया से नहीं।”Acharya Shantisagar

वे बार-बार आत्मचिन्तन की महत्ता पर बल देते हैं। उन्होंने समाधि के क्षणों में भी आत्मचिन्तन का आग्रह किया। उनका आत्मचिन्तन का आग्रह कोई पांडित्यपूर्ण उपदेश नहीं था, वह आत्मा की पुकार थी — “कम से कम पाँच मिनट आत्मा की ओर देखो, सब कुछ बदल जाएगा।” Acharya Shantisagar यह उद्घोष उनके समस्त जीवन का सार था और हम सभी पर महान उपकार था ।

यह उपदेश आज की भाग-दौड़ भरी दुनिया में आत्मकेन्द्रित चेतना की पुकार है कि एक क्षण स्वयं से साक्षात्कार कर लेना, सहस्त्र बाह्य क्रियाओं से श्रेष्ठ है।

  1. जीव की नितान्त एकाकी सत्ता

शांतिवचन –

“जीव अकेला है, बाबा! उसका कोई नहीं।”Acharya Shantisagar

यह भाव उनके जीवन के अन्तिम सन्देशों में भी देखा गया। जब सम्पूर्ण शरीर क्षीण हो चुका था, तब भी आत्मा के स्वभाव की ओर उनका आग्रह अडिग था। यह वाक्य आत्मनिर्भरता की चरम प्रेरणा है। यह अहम् की नहीं, आत्म-स्वरूप की प्रतिष्ठा है।“जीव अकेला है, बाबा!” — जब उन्होंने यह कहा, तो शब्दों से अधिक मौन बोल उठा। इस संसार में हम जिनको अपना मानते हैं, वे सब पुद्गल के बंधन हैं। जीव का साथी केवल उसका संयम है, उसका सम्यक्त्व है, और उसका आत्मचिन्तन है।

 

  1. जिनवाणी के प्रति अटूट श्रद्धा और प्रेरणा

शांतिवचन –

“भगवान की वाणी पर विश्वास करो — उसके एक-एक शब्द से मोक्ष पाया जा सकता है।”Acharya Shantisagar

वे मानते थे कि सत्संग या शास्त्रस्वाध्याय ही सच्चा संग है। यह उपदेश ‘ज्ञान ही धर्म है’ की परंपरा को आगे बढ़ाता है और आधुनिक जैन समाज में शास्त्र-स्वाध्याय की पुनर्स्थापना की आवश्यकता को रेखांकित करता है। वे बार-बार कहते हैं — “भगवान की वाणी पर विश्वास करो।” उनकी श्रद्धा ऐसी थी कि जिनवाणी को वे ‘श्रुतदेवी’ कहते थे। यह केवल शब्द नहीं, दिव्य आस्था का प्रत्यक्ष प्रमाण है। वे मानते थे — एक ‘ॐ’ भी अगर जीवन में उतर जाए, तो मोक्ष सुलभ हो जाता है।

10.Acharya Shantisagar : आचार्य श्री का अंतिम उपदेश: जीवन का संपूर्ण आध्यात्मिक निचोड़

सल्लेखना के २६वें दिन, जब शरीर क्षीण हो चुका था, उस अंतिम क्षण में भी आचार्य श्री ने आत्मा की बात की। उन्होंने कहा — “केवल आत्मचिन्तन से मोक्ष मिलता है।” यह उपदेश उस काल का निचोड़ है जहाँ शरीर मिटता है पर आत्मा बोलती है। उन्होंने कहा — संयम धारण करो, डरो मत! यह वाणी उस महान पुरुष की है जिसने अपने जीवन में कोई भी मोह का लेश नहीं रखा।

जब वे कहते हैं — “जीव अकेला है”, तो वह अकेलापन डराने वाला नहीं बल्कि आत्मनिर्भरता का उद्घोष है। यह उपदेश आज भी साधक के कानों में गूंजता है और कहता है — “तू अकेला है, पर पूर्ण है।” आचार्य श्री का यह अंतिम संदेश, एक दिव्य महाघोष है — संयम और सम्यक्त्व ही मुक्ति का एकमात्र सेतु है।

उपसंहार

आज जब मानवता हिंसा, मोह, और संघर्षों से जूझ रही है, तब आचार्य श्री के उपदेशों की यह पुकार अधिक प्रासंगिक हो उठती है — संयम धारण करो! आत्मा को जानो! जिनवाणी पर श्रद्धा रखो! अगर संसार को शांति चाहिए, तो वह किसी युद्ध, राजनीति या तकनीक से नहीं, केवल संयम और सम्यक्त्व की साधना से सम्भव है।

आचार्य श्री शान्तिसागर जी महाराज का सम्पूर्ण उपदेश साहित्य, आत्मकल्याण के साथ-साथ सामाजिक शांति का भी मार्गदर्शक है। उनका हर उपदेश हमें यह बताता है कि सत्य, अहिंसा, संयम और आत्मचिन्तन के बिना कोई भी शांति स्थायी नहीं हो सकती। आज जब विश्व विविध युद्धों, मानसिक तनावों और भौतिक मोह की दौड़ में उलझा हुआ है, तब आचार्य श्री का यह वाक्य विशेष रूप से प्रासंगिक हो उठता है —

“संयम धारण करो, डरो मत — इसके बिना कल्याण नहीं।”Acharya Shantisagar

उनका यह आह्वान केवल जैन समाज के लिए नहीं, सम्पूर्ण मानवता के लिए है। उन्होंने अपने जीवन की अंतिम साँसों तक यह सन्देश दिया कि मोक्ष मार्ग एकाकी है, उसमें केवल आत्मा है, और उसका सहारा है — संयम, सम्यक्त्व और आत्मचिन्तन । आचार्य श्री का अनुप्रयुक्त अनेकान्तवाद, जो व्यवहार और निश्चय के समन्वय से उत्पन्न होता है, वही आज के युद्ध-पीड़ित संसार में सहिष्णुता, सह-अस्तित्व और समाधान का एकमात्र मार्ग है।

इसलिए यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि —

            “यदि आत्मशांति और विश्व शांति सम्भव है, तो वह Acharya Shantisagar आचार्य श्री शान्तिसागर जी के उपदेशित संयम, सम्यक्त्व और अनेकांत दर्शन के अनुप्रयोग से ही संभव है। यही जैन धर्म की वैश्विक देन है।”

अतः आचार्य श्री के उपदेश आज भी अमर हैं, और युगों-युगों तक भव्य आत्माओं को मुक्ति का मार्ग दिखाते रहेंगे।

 

प्रमुख स्रोत

1.https://encyclopediaofjainism.com/ पर उपलब्ध डॉ.रमेशचंद जैनजी ,प्रो प्रेमसुमन जैन जी , मुनि श्री नेमि सागर जी द्वारा संकलित उपदेश सम्बन्धी 3-4 लेख Acharya Shantisagar

2.चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ – पंडित सुमेर चंद जी दिवाकर

  1. प्राकृत विद्या का आचार्य शान्तिसागर विशेषांकAcharya Shantisagar

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