India vs Bharat: The Reality Behind the Name ‘Bharat Varsha’- ‘भारतवर्ष’ के नामकरण की वास्तविकता

India vs Bharat

india vs bharat :The Reality Behind the Name ‘Bharat Varsha’

भारतवर्ष के नामकरण की वास्तविकता

–   प्रो.डॉ. अनेकान्त कुमार जैन(राष्ट्रपति सम्मानित )[1]

india vs bharat :हमारी मान्यता बन चुकी है कि हमारी दृष्टि वैसी नहीं होनी चाहिए जैसा कि ‘सत्य’ है; बल्कि सत्य ही वैसा होना चाहिए जैसी कि दृष्टि है। आश्चर्य होता है कि इतने बड़े वैज्ञानिक, तथ्यात्मक तथा प्रामाणिक युग में रहकर भी हम अपनी मान्यताएं सुधार नहीं पाते हैं।

18 सितंबर 1949 को संविधान सभा की कार्यवाही में हरि विष्णु कामथ जी ने अपने india-vs-bharat भाषण में भारत, हिन्दुस्तान, हिन्दू भारत भूमि, भारतवर्ष आदि नामों का सुझाव देते हुए दुष्यन्त पुत्र भरत की कथा ‘भारत’ का उल्लेख किया था।(can read full debate on – https://www.constitutionofindia.net/debates/18-sep-1949/)

Taking my first amendment first, amendment No. 220, it is customary among most peoples of the world to have what is called a Namakaran or a naming ceremony for the new-born. India as a Republic is going to be born very shortly and naturally there has been a movement in the country among many sections–almost all sections-of the people that this birth of the new Republic should be accompanied by a Namakaran ceremony as well. There are various suggestions put forward as to the proper name which should be given to this new baby of the Indian Republic. The prominent suggestions have been Bharat, Hindustan, Hind and Bharatbhumi or Bharatvarsh and names of that kind. At this stage it would be desirable and perhaps profitable also to go into the question as to what name is best suited to this occasion of the birth of the new baby-the Indian Republic. Some say, why name the baby at all? India will suffice. Well and good. If there was no need for a Namakaran ceremony we could have continued India, but if we grant this point that there must be a new name to this baby, then of course the question arises as to what name should be given.Now, those who argue for Bharat or Bharatvarsh or Bharatbhumi, take their stand on the fact that this is the most ancient name of this land. Historians and philologists have delved deep into this matter of the name of this country, especially the origin of this name Bharat. All of them are not agreed as to the genesis of this name Bharat. Some ascribe it to the son of Dushyant and Shakuntala who was also known as “Sarvadamana” or all-conqueror and who established his suzerainty and kingdom in this ancient land. After him this land came to be known as Bharat. Another school of research scholars hold that Bharat dates back to Vedic……..  (9.144.1-18,H. V. Kamath)

उस समय सेठ गोविन्ददास जी ने भी उस बहस में अपनी बात इस प्रकार रखी थी-

The word India does not occur in our ancient books. it began to be used when the Greeks came to India. They named our Sindhu river as Indus and India was derived from Indus. There is a mention of this in Encyclopaedia Britannica. On the contrary, if we look up the Vedas, the Upanishads the Brahmanas and our great and ancient book the Mahabharat, we find a mention of the name Bharat. (Bbisma Parva).We find a mention of “Bharat” in Vishnu Purana also.In Brahma Purana too we find this country mentioned as “Bharat”.A Chinese traveller named Hiuen-Tsang came to India and he has referred to this country as Bharat in his travel book.    –Seth Govind Das( 9.144.127,128,129,130)

संभवतः उस समय तक के सीमित अनुसंधानों के आधार पर यह बात रखी  गई होगी |

आधुनिक शोधों और प्राचीन अन्यान्य प्रमाणों के आधार पर यह परिणाम सामने आ चुका है कि जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के प्रथम पुत्र चक्रवर्ती सम्राट ‘भरत” के नाम पर इस देश का नाम भारत पड़ा और इससे पूर्व ऋषभदेव के पिता ‘नाभिराय’ के नाम पर इस देश का नाम ‘अजनाभवर्ष” था।

प्राचीन जैन आगमों के साथ साथ वैदिक पुराणों में भी एक नहीं वरन् दर्जनों श्लोक ऐसे भी हैं जो यह सिद्ध करते हैं कि ऋषभ पुत्र भरत के नाम पर इस देश को भारत नाम मिला।

india-vs-bharat: प्राचीन जैन प्रमाण

1.भगवान् महावीर (600 ईसापूर्व ) – भारत नामकरण को लेकर भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट और गौतम गणधर द्वारा प्रतिपादित मूल द्वादशांग आगम के छठे अंग जम्बूद्वीव-पण्णत्ति(सूत्र 3/88)में तृतीय वक्षस्कार में  चर्चा विद्यमान है । श्रुत परंपरा की दृष्टि से इसका काल ईसा की छठी शती पूर्व का माना जाता है जिसका लिखित संग्रह दूसरी से चतुर्थ शती के मध्य किया गया । यह प्राकृत भाषा का आगम श्वेताम्बर जैन परंपरा में विशेष रूप से स्वीकृत है।

इसमें आरम्भ में ही भगवान् से प्रश्न पूछा गया है कि –

से केणट्ठेणं भंते ! एवं वुच्चइ – भरहे वासे भरहे वासे ?(सूत्र 51)

अर्थात् – हे भगवन् ! भरतवर्ष का ‘भारत वर्ष ‘ यह नाम किस कारण पड़ा ?

इसके बाद पूरे अधिकार में तीर्थंकर ऋषभदेव के पुत्र चक्रवर्ती भरत के वैभव ,राज पाठ, दिग्विजय आदि का उसके शासन का विस्तार से वर्णन है । फिर अंतिम सूत्र संख्या 88 पर  उल्लिखित है –

भरहे ह इत्थ देवे महिड्ढी महुज्जुईए जाव पलिओवयट्ठिईए परिवसइ,से एएणट्ठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ भरहे वासे त्ति ।

अर्थात् भरत क्षेत्र में महान् ऋद्धिशाली ,परम द्युतिमान्,पल्योपम आयु स्थिति वाला ‘भरत’ नामक देव वास करता है ,इसी के कारण इस क्षेत्र को भारतवर्ष कहा जाता है ।इतना ही नहीं बल्कि अंत में भारतवर्ष इस संज्ञा को अनादि अनंत भी बता दिया गया है –

अनुत्तरं च णं गोयमा ! भरहस्स वासस्स सासए णामधिज्जे पण्णत्ते,जं ण कयाइ ण आसी,ण कयाइ णत्थि,ण कयाइ ण भविस्सइ,भुविं य,भवइ अ,भविस्सइ अ,धुवे णिअए सासए.,अक्खए,अव्वए,अवट्ठिए ,णिच्चे भारहे वसहे ।

अर्थात् ‘ भारत वर्ष यह नामकरण शाश्वत है ,सदा था ,सदा रहेगा ,यह नाम ध्रुव ,नियत,शाश्वत,अक्षय,अव्यय व नित्य है ।

2. सम्राट खारवेल (ई.पू.द्वितीय शती )- भारतवर्ष नामकरण का सबसे अधिक प्राचीन प्रमाण जैन सम्राट खारवेल का वह शिलालेख है जो उड़ीसा राज्य में उदयगिरी और खंडगिरी की प्रसिद्ध गुफा में प्राप्त होता है । अंग्रेज़ इतिहासकार ए.स्टर्लिंग  ने 1820 में इसकी खोज की ।  सम्राट खारवेल द्वारा पहली-दूसरी सदी ईसापूर्व में एक गुफा की ऊपरी शिला पर खुदवाये गये इस शिलालेख की लिपि ब्राह्मी और भाषा प्राकृत थी । स्टर्लिंग ने इस अभिलेख के बारे में 1825 में छपी ‘Asiatic Researches Volume 15’ में विस्तार से लिखा है । कई दशकों बाद सन् 1885 में जाकर पुरातत्त्ववेत्ता भगवनलाल इंद्राजी ने इसका अनुवाद पेश किया। इस सत्रह पंक्ति वाले इस शिलालेख की दसवीं पंक्ति में  ‘भरधवस’(भारतवर्ष) इस नामकरण का स्पष्ट उल्लेख है । वह पंक्ति इस प्रकार है – दसमे च वसे दंड संधि साम (मयो)

Bharat varsha
Bharat Varsha
Kharvel Inscription
Kharvel Inscription

3. आचार्य यतिवृषभ (प्रथम शती ईश्वी) कृत प्राकृत ग्रन्थ तिलोयपण्णत्ति में लिखा है कि भरत चक्रवर्ती के शासनकाल की गणना उल्लिखित है [3]

भरहे छलक्खपुव्वा ,इगिसट्ठिसहस्सवासपरिहीणा ।

यहाँ ‘पूर्व’ जैन गणित द्वारा गिना गया एक विशेषकाल मान है । जिसके अनुसार 84 लाख वर्ष का एक पूर्वांग होता है ,और 84 लाख पूर्वांगों का एक पूर्व होता है अतः इसका परंपरागत पद्धति पूर्वक यदि गणित निकालें तो 6x84x84 ═ 42336 लाख वर्ष , उसमें से 61000 वर्ष कम कर दें तो 42336 00000 – 61000 ═ 4233539,000 वर्ष तक उन्होंने राज किया  और इतना बड़ा शासनकाल वो भी पहले चक्रवर्ती का होना स्वयं ही सिद्ध करता है कि इस देश का नाम उन्हीं के नाम के कारण भारतवर्ष विख्यात हुआ ।

4. आचार्य संघदासगणि (300 ईश्वी ) ने प्राकृत भाषा में एक विशाल गद्यात्मक कथाकृति ‘वसुदेवहिंडी’ में उल्लेख किया है –

‘इहं सुरासुरिंद -विंदवंदियम-चलणारविंदो उसभो नाम पढमो राया जगप्पियामहो आसी । तस्स पुत्तसयं। दुवे पहाणा- भरहो बाहुबली य । उसभसिरी पुत्तसयस्स पुरसयं जणवयसयं च दाऊण पव्वइओ । तत्थ भरहो भरहवासचूडामणी,तस्सेव नामेण इहं ‘भरहवासं’ ति पवुच्चति,सो विणीयाहिवती ।  बाहुबली हत्थिणाउर –तक्खसिलासामी । ’[4]

अर्थ – यहाँ सुरासुर वन्दित चरणारविंद वाले जगत्पितामह ऋषभ नाम के प्रथम राजा थे ।  उनके सौ पुत्र थे ,जिनमें दो मुख्य थे : भरत और बाहुबली ।  ऋषभ श्री अपने सौ पुत्रों को सौ नगर और सौ जनपद देकर प्रव्रजित हो गए ।  उन पुत्रों में भरत भारतवर्ष के चूड़ामणि थे ।  उनके ही नाम पर यह देश भारत वर्ष कहा जाता है ।  वे विनीता नगरी (अयोध्या) के अधिपति थे और बाहुबली हस्तिनापुर तक्षशिला के स्वामी ।

5. आचार्य पूज्यपाद (600 ईश्वी) ने तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थ की संस्कृत टीका सर्वार्थसिद्धि में इस संज्ञा को अनादि माना है [5]

भरतादय: संज्ञा अनादिकालप्रवृत्ता अनिमित्ता: । तत्र भरतवर्षः क्व सन्निविष्ट: ?

अर्थात् ‘भरत’ यह संज्ञा अनादि कालीन है तथा अनिमित्तक है,अर्थात् इसका मूलतः कोई कारण नहीं है ।  इसलिए भरत यह नाम अनादि सम्बन्ध ,पारिणामिक है अर्थात् बिना किसी कारण के स्वाभाविक है ।  यह भारतवर्ष कहाँ है ? …इसके बाद यहाँ विषयानुकूल भरत क्षेत्र का वर्णन विस्तार से किया गया है ।

6. आचार्य अकलंक (700 ईश्वी ) ने तत्त्वार्थराजवार्तिक में दोनों बातें स्वीकार की हैं कि ऋषभ पुत्र भरत से इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा तथा यह संज्ञा अनादि भी है [6]। वे तत्त्वार्थसूत्र के तृतीय अध्याय के दसवें सूत्र की संस्कृत टीका वार्तिक के रूप में करते हुए लिखते हैं –

भरत इति संज्ञा कुतः ?

वार्तिक1.                भरतक्षत्रिययोगाद् वर्षो भरत:।…..तस्यामुत्पन्न: सर्वराजलक्षणसंपन्नो भरतो नामाद्यश्चक्रधरः षट्खण्डाधिपति: ।  अवसर्पिण्या राज्यविभागकाले तेनादौ भुक्तत्वात्,तद्योगाद्भरत इत्याख्यायते वर्षः ।  

वार्तिक 2.                             अनादिसंज्ञासम्बन्धाद् वा ।

भावार्थ – ‘भरत’ यह संज्ञा कहाँ से आई ? (इसके दो उत्तर हैं) –

1.ऋषभ पुत्र क्षत्रिय राजा भरत के योग से यह भरतवर्ष हुआ ।  वे सर्व राज लक्षण से संपन्न चक्ररत्न धारी षट्खण्डाधिपति भरत नाम के क्षत्रिय राजा थे । अवसर्पिणी काल में उन्होंने सर्वप्रथम इस पृथ्वी पर लाखों वर्षों तक राज किया इसलिए इस देश का नाम भारत वर्ष हुआ ।

  1. ‘भरत’ यह संज्ञा अनादि है ।

7. आचार्य रविषेण (700ईश्वी )ने पद्मपुराण में लिखा है [7]

चक्रवर्तिश्रियं तावत् प्राप्तो भरतभूपतिः ।

यस्य क्षेत्रमिदं नाम्ना जगत् प्रकटतां गतम् । ।

अर्थात ऋषभ पुत्र भरत चक्रवर्ती ने लक्ष्मी को हस्तगत किया था और उन्हीं के नाम से यह क्षेत्र भारत क्षेत्र(वर्ष) या भारत नाम से प्रसिद्ध हुआ ।

8. आचार्य जिनसेन(800-900 ईश्वी ) ने आदिपुराण में कहा है कि तीर्थंकर ऋषभ के पुत्र भरत प्रथम चक्रवर्ती सम्राट थे । उन्हीं ने इस षट्खंड पृथ्वी का चिरकाल तक पालन किया इसी कारण उनके नाम से भारत भूमि भारतवर्ष के नाम से विख्यात हुई[8]

प्रमोदभरतः प्रेमनिर्भरा बंधुता तदा

तमाह्वद् भरतं भावि समस्तभरताधिपम् । ।

अर्थात्, उस समय प्रेम से भरे हुए बंधुओं के समूह ने बड़े भारी हर्ष से ,समस्त भरत क्षेत्र के अधिपति होने वाले उस पुत्र को ‘भरत’इस नाम से पुकारा था ।

तन्नाम्ना भारतं वर्षमिति हासीज्जनास्पदम् ।

हिमाद्रेरासमुद्राच्च क्षेत्रं चक्रभृतामिदम् । ।

अर्थात्,इतिहास के जानने वालों का कहना है कि जहाँ अनेक आर्य पुरुष रहते हैं ऐसा यह हिमवत पर्वत से लेकर समुद्र पर्यंत का चक्रवर्तियों का यह क्षेत्र उसी ‘भरत’ पुत्र के नाम के कारण भारत वर्ष रूप से प्रसिद्ध हुआ । यही श्लोक महाकविश्रीमद् अर्हदास(13शती ई.) विरचित ऋषभदेव चरित पर आधारित पुरुदेवचम्पूप्रबंधः में भी उद्धृत है । [9]

वे ही आगे सैंतीसवें पर्व में कहते हैं कि

सोयं चक्रधरोभुनक् भुवममूमेकातपत्रां चिरम्[10],

अर्थात् सम्राट भरत एक छत्र वाली इस पृथ्वी का चिरकाल तक पालन करता रहा था । अब यदि उनके शासन के इस चिरकाल की गणना देखनी हो तो आचार्य यतिवृषभ(1 शती ई.) कृत प्राकृत ग्रन्थ तिलोयपण्णत्ति की वह कालमान देखिये जो द्वितीय बिंदु में पूर्व में बतलाई गई है ।

9. आचार्य जिनसेन कहते हैं –

यन्नाम्ना भरतावनित्वमगमत् षट्खण्डभूषा मही

येना सेतु हिमाद्रि रक्षितमिदं क्षेत्रं कृतारिक्षयम् ।

यस्या विर्निधिरत्नसंपदुचिता लक्ष्मीरुरःशायिनी

स श्रीमान् भरतेश्वरो निधि भुजामग्रेसरोऽभूत् प्रभुः । । [11]

अर्थात् छह खण्डों से विभूषित पृथ्वी जिसके नाम से भारत भूमि नाम प्राप्त हुआ ,जिसने दक्षिण समुद्र से लेकर हिमवान् पर्वत तक के इस क्षेत्र में शत्रुओं का क्षय कर उसकी रक्षा की ,तथा प्रकट हुई निधि और रत्न आदि संपदाओं से योग्य लक्ष्मी जिसके वक्षस्थल पर शयन करती थी,वह प्रभु –श्रीमान्  भरतेश्वर निधियों के स्वामी अर्थात् चक्रवर्तियों में प्रथम चक्रवर्ती हुआ ।  अतः उन्हीं के नाम से षट्खंडात्मक पृथ्वी भारत भूमि भारतवर्ष के नाम से विख्यात हुई ।

10. आचार्य विद्यानंद (900 ईश्वी ) ने भी तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक ग्रन्थ में आचार्य अकलंक की भांति दोनों तथ्यों को स्वीकार किया है [12]

भरतक्षत्रिययोगाद्भरतो वर्षो: । अनादिसंज्ञासम्बन्धाद् वा ।

इसके अलावा जैन परंपरा के अन्यान्य संस्कृत ,प्राकृत ,अपभ्रंश,हिंदी,राजस्थानी,गुजराती,मराठी,कन्नड़,तमिल आदि अनेक भाषाओँ में लिखे गए साहित्य में इस तथ्य का उल्लेख स्थान स्थान पर मिल सकता है ।

11. आचार्य धरसेन (12-13 ईश्वी ) ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ विश्वलोचनकोश(मुक्तावली कोश) में अंत में अपने देश का नाम ‘भारत’ ही संबोधित करते हुए ,भारत वंदना करते हुए लिखते हैं[13]

भारतं मे प्रियं राष्ट्रं, भारतं हितकारकम्।

भारताय नम: तस्मै, यत्र में पूर्वजा: स्थिता:।।

अर्थ:- भारत मेरा प्यारा देश है। भारत हितकारी है। उस भरत के भारत देश को नमस्कार है, जहाँ मेरे पूर्वज (२४ तीर्थंकर) रहते थे।‘

ऋषभदेव की पुरातात्विक प्राचीनता

साहित्य में तो मिलता ही है ,किन्तु पुरातात्विक दृष्टि से भी तीर्थंकर ऋषभदेव और भरत बहुत प्राचीन बल्कि प्रागैतिहासिक काल के सिद्ध होते हैं ।  इतिहासकार सिन्धु घाटी की सभ्यता का सम्बन्ध भी इनसे जोड़ते हैं कि तब ऋषभदेव की पूजा होती थी । मॉडर्न रिव्यु में प्रकाशित प्रो. चन्दा के यह तथ्य पठनीय है[14]

‘‘सिन्धु मुहरों में से कुछ मुहरों पर उत्कीर्ण देवमूर्तियों में केवल योगमुद्रा में अवस्थित हैं, जो उस प्राचीन युग में सिंधु घाटी में प्रचलित योग पर प्रकाश डालती हैं , उन मुहरों में खड़े हुए देवता योग की मुद्रा भी प्रगट करते हैं और यह कायोत्सर्ग मुद्रा आश्चर्यजनकरूप से जैनों से संबंधित है। यह मुद्रा बैठकर ध्यान करने की न होकर खड़े होकर ध्यान करने की है। आदिपुराण सर्ग १८ में ऋषभ अथवा वृषभ की तपश्चर्या के सिलसिले में कायोत्सर्ग मुद्रा का वर्णन किया गया है। मथुरा के पुरातत्त्व संग्रहालय में एक शिलाफलक पर जैन ऋषभ की कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़ी हुई चार प्रतिमाएँ मिली हैं जो ईसा की द्वितीय शताब्दी की निश्चित की गई हैं। मथुरा की यह मुद्रा मूर्ति संख्या १२ में प्रतिबिम्बित है। प्राचीन राजवंशों के काल की मिस्री स्थापत्य कला में प्रतिमाएँ ऐसी भी मिलती हैं, जिनकी भुजाएँ दोनों ओर लटकी हुईं हैं। यद्यपि ये मूर्तियाँ प्राय: उसी मुद्रा में मिलती हैं, किन्तु उनमें वैराग्य की वह झलक नहीं है, जो सिंधु घाटी की इन खड़ी मूर्तियों या जैनों की कायोत्सर्ग प्रतिमाओं में मिलती है। ऋषभ का अर्थ है वृषभ (बैल) और वृषभ यह ऋषभ जिन का चिन्ह है।’’

Mohanjodaro Seal
Mohanjodaro Seal

प्रो. चन्दा के इन विचारों का समर्थन डॉ. प्राणनाथ विद्यालंकार ने भी किया है। वे भी सिंधु घाटी में मिली इन कायोत्सर्ग प्रतिमाओं को ऋषभदेव की मानते हैं | इन विद्वानों ने यहाँ से प्राप्त सील नं. ४४९ पर ‘जिनेश्वर’ शब्द भी पढ़ा है। इस संबंध में खोजकारों की मान्यता है कि सभी ध्यानस्थ प्रतिमाएँ जो सिंधु घाटी में मिली है, जैन तीर्थंकरों की हैं। ध्यानमग्न वीतराग मुद्रा, त्रिशूल और धर्मचक्र, पशु, वृक्ष और नाग ये सभी जैन कला की अपनी विशेषताएँ हैं। विशेषत: कायोत्सर्गासन जैन श्रमणों द्वारा ध्यान के लिए प्रयुक्त होता है।

सिंधु-सभ्यता अत्यन्त समृद्ध और समुन्नत सभ्यता थी। पुरातत्त्ववेत्ताओं ने सिंधु सभ्यता का जो मूल्याकंन किया है, उसके बड़े रोचक निष्कर्ष निकले हैंं। डॉ. राधाकुमुद मुखर्जी लिखते हैं-मुहर के फलक दो पर अंकित देवमूर्ति में एक बैल भी बना है। संभव है, यह ऋषभ का ही पूर्व रूप हो। यदि ऐसा हो तो शैव धर्म की तरह जैन धर्म का मूल भी ताम्रयुगीन सिंधु सभ्यता तक चला जाता है। प्रसिद्ध विद्वान् श्री रामधारी सिंह दिनकर इसी बात की पुष्टि करते हुए लिखते हैं-मोहन-जोदड़ो की खुदाई में योग के प्रमाण मिले हैं और जैनमार्ग के आदि तीर्थंकर ऋषभदेव थे, जिनके साथ योग और वैराग्य की परम्परा उसी प्रकार लिपटी हुई है जैसे-कालान्तर में वह शिव के साथ संबंधित थी। इस दृष्टि से कई जैन विद्वानों का यह मानना अयुक्तियुक्त नहीं दीखता कि ऋषभदेव वेदोल्लिखित होने पर भी वेदपूर्व के हैं।

india-vs-bharat : प्राचीन वैदिक प्रमाण

प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के पुत्र भरत के कारण अपने देश का नाम भारत हुआ ,यह तथ्य मात्र जैन साहित्य में प्राप्त होता तो जैनेतर संप्रदाय के लोग इस तथ्य को नकारने में कोई कसर नहीं छोड़ते किन्तु सम्पूर्ण विश्व की विरासत समझे जाने वाले प्राचीन वेद और वैदिक पुराण साहित्य में इस तथ्य की पुष्टि जैन साहित्य से कहीं अधिक होना,इस बात का प्रमाण है कि तीर्थंकर ऋषभदेव आदि पुरुष थे ,उनका पुत्र आदि चक्रवर्ती सम्राट था और सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति के चाहे वे वैदिक हों या जैन ,उनके आदि जन्मदाता वे ही थे ।

वैदिक परम्परा ऋषभदेव का स्मरण बहुत ही भक्तिपूर्वक करती है ।  भारतीय संस्कृति के आन्तरिक पक्ष को जो योगदान ऋषभदेव ने दिया उसकी चर्चा संसार का प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद इन शब्दों में करता है[15]

त्रिबद्धो वृषभो रोरवीति महा देवो वा॒ आ विवेश ।।

इस मन्त्रांश का सीधा शब्दार्थ है- तीन स्थानों से बंधे हुये वृषभ ने बारंबार घोषणा की कि महादेव मनुष्यों में ही प्रविष्ट हैं। यह घोषणा आत्मा को ही परमात्मा बनाने की घोषणा है। आत्मा में परमात्मा के दर्शन करने के लिए मन, वचन, काय का संयम आवश्यक है। (कायवाङ्मनः कर्मयोगः[16]) यह त्रिगुप्ति ही वृषभ का तीन स्थानों पर संयमित होना है। आत्मा ही परमात्मा है यह घोषणा भारतीय संस्कृति को उन सेमेटिक धर्मों से अलग करती है जिन धर्मों में परमात्मा को परमात्मा और जीव को जीव माना गया है तथा यह कहा गया है कि जीव कभी परमात्मा नहीं हो सकता। किन्तु भारतीय चिन्तन में जो आत्मा है वही परमात्मा है[17]अप्पा सो परमप्पा’ । ऋषभदेव का यह स्वर इतना बलवान था कि वह केवल जैनों तक सीमित नहीं रहा अपितु पूरे भारतीय चिन्तन में व्याप्त हो गया। उपनिषदों ने भी घोषणा की[18]अयम् आत्मा ब्रह्म । वेदान्त ने तो इतना भी कह दिया कि सब शास्त्रों का सार यही है कि जीव ही ब्रह्म है[19]जीवो ब्रह्मैव नापरः। यदि धर्मदर्शन के क्षेत्र में भारतीय संस्कृति को गैर-भारतीय संस्कृति से अलग करने वाला व्यावर्त्तक धर्म खोजा जाय तो वह है- ‘आत्मा परमात्मा की एकता और इस तथ्य के अन्वेषण में भगवान् ऋषभदेव का महत्त्वपूर्ण योगदान है।

श्रीमद्भागवत् में भगवान् ऋषभदेव का आध्यात्मिक उपदेश- श्रीमद्भागवत में कहा है कि नाभि का प्रिय करने के लिए विष्णु ने मरुदेवी के गर्भ से वातरशना श्रमण ऋषियों को धर्म का उपदेश देने के लिए ऋषभदेव के रूप में जन्म लिया-

नाभेः प्रियचिकीर्षया । तदवरोधायने मेरुदेव्यां धर्मान्दर्शयितुकामो वातरशनानां श्रमणानामृषिणां ऊर्ध्वमन्धिनां शुक्लया तनुवावततार ।[20]

इन्हीं वातरशना मुनियों का उल्लेख ऋग्वेद में भी इस प्रकार आता है[21]

मुन॑यो॒ वात॑र॒शनाः पिशङ्गां वसते मला । बातस्यानु धाजिं यन्ति यदेवासो अविधत ।।

ऋषभदेव ने जो उपदेश दिया वह समता, शान्ति, मैत्री और करुणा का था[22]

सम उपशातो मैत्रः कारुणिकः ।

भागवत् के पांचवें स्कन्ध के पांचवें अध्याय में उस उपदेश का उल्लेख है जो उपदेश ऋषभदेव ने दिया। इस उपदेश के यहाँ निबद्ध 27 श्लोक भगवान् ऋषभदेव के भारतीय संस्कृति के आध्यात्मिक पक्ष के अवदान की स्पष्ट घोषणा कर रहे हैं।

वैदिक पुराणों के अनुसार प्रलयकाल के पश्चात् स्वायम्भुव मनु के ज्येष्ठ पुत्र प्रियव्रत ने रात्रि में भी प्रकाश रखने की इच्छा से ज्योतिर्मय रथ के द्वारा सात बार भूमण्डल की परिक्रमा की। परिक्रमा के दौरान रथ की लीक से जो सात मण्डलाकार गड्ढे बने, वे ही सप्तसिंधु हुए। फिर उनके अन्तर्वर्ती क्षेत्र सात महाद्वीप हुए जो क्रमशः जम्बूद्वीप, प्लक्षद्वीप, शाल्मलिद्वीप, कुशद्वीप, क्रौंचद्वीप, शाकद्वीप और पुष्करद्वीप कहलाए। ये द्वीप क्रमशः दुगुने बड़े होते गए हैं और उनमें जम्बूद्वीप सबके बीच में स्थित है[23]

जम्बूद्वीपः समस्तानामेतेषां मध्यसंस्थितः

प्रियव्रत के 10 पुत्रों में से 3 के विरक्त हो जाने के कारण शेष 7 पुत्र— आग्नीध्र, इध्मजिह्व, यज्ञबाहु, हिरण्यरेता, घृतपृष्ट, मेधातिथि और वीतिहोत्र क्रमशः जम्बूद्वीप, प्लक्षद्वीप, शाल्मलिद्वीप, कुशद्वीप, क्रौंचद्वीप, शाकद्वीप और पुष्करद्वीप के अधिपति हुए।

प्रियव्रत ने अपने पुत्र आग्नीध्र को जम्बूद्वीप दिया था[24]

जम्बूद्वीपं महाभाग साग्नीध्राय ददौ पिता मेधातिथेस्तथा प्रादात्प्लक्षद्वीपं तथापरम् ।।

जम्बूद्वीपाधिपति आग्नीध्र के 9 पुत्र हुए- नाभि, किंपुरुष, हरिवर्ष, इलावृत्त, रम्यक, हिरण्यमय, कुरु, भद्राश्व तथा केतुमाल। सम विभाग के लिए आग्नीध्र ने जम्बूद्वीप के 9 विभाग करके उन्हें अपने पुत्रों में बाँट दिया और उनके नाम पर ही उन विभागों के नामकरण हुए[25]आग्नीध्रसुतास्तेमातुरनुग्रहादोत्पत्तिकेनेव संहननबलोपेताः पित्रा विभक्ता आत्म तुल्यनामानियथाभागं जम्बूद्वीपवर्षाणि बुभुजः ।

पिता (आग्नीध्र) ने दक्षिण की ओर का ‘हिमवर्ष’ (जिसे अब ‘भारतवर्ष’ कहते हैं) नाभि को दिया[26]पिता दत्तं हिमाह्वं तु वर्षं नाभेस्तु दक्षिणम्

आठ विभागों के नाम तो ‘किंपुरुषवर्ष’, ‘हरिवर्ष’ आदि ही हुए, किंतु ज्येष्ठ पुत्र का भाग ‘नाभि’ से ‘अजनाभवर्ष’ हुआ। नाभि के एक ही पुत्र ऋषभदेव थे, जैनों के प्रथम तीर्थंकर हैं । ऋषभदेव के एक सौ पुत्र हुए जिनमें भरत सबसे बड़े थे । ऋषभदेव ने वन जाते समय अपना राज्य भरत को दे दिया था, तभी से उनका खण्ड ‘भारतवर्ष’ कहलाया[27]

ऋषभाद्भरतोः जज्ञे ज्येष्ठः पुत्राशतस्य सः ।

ततश्च भारतं वर्षमेतल्लोकेषु गीयते ।

भरताय यतः पित्रा दत्तं प्रतिष्ठिता वनम् ।।

भागवत महापुराण में स्पष्ट लिखा है[28]

 येषां खलु महायोगी भरतो ज्येष्ठः श्रेष्ठगुण आसीद्येनेदं वर्षं भारतमिति व्यदिशन्ति

 तेषां वै भरतो ज्येष्ठो नारायणपरायणः ।विख्यातं वर्षमेतद् यन्नाम्ना भरतमद्भुतम् ।।

उसमें तो यह भी लिखा है कि ऋषभदेव के पिता नाभिराय के नाम पर इस देश का पुराना नाम अजनाभवर्ष ही आगे चल कर भरत के नाम पर ‘भारतवर्ष’ कहलाया[29]

अजनाभं नामैतद्वर्षं भारतमिति यत आरभ्य व्यपदिशन्ति

इसका समर्थन अन्य पुराण भी कर रहे हैं[30]

नाभे पुत्रात्तु ऋषभाद् भरतो याभवत् ततः ।

तस्य नाम्ना त्विदंवर्षं भारतं येति कीर्त्यते ।।

उसी दिन से इस देश का नाम ‘भारतवर्ष’ हो गया जो आज तक है।

चूँकि ऋषभदेव ने अपने ‘हिमवर्ष’ नामक दक्षिणी खण्ड को अपने पुत्र भरत को दिया था, इसी कारण उसका नाम भरत के नामानुसार ‘भारतवर्ष’ पड़ा ।  लिंगपुराण आदि अनेक पुराण इसकी स्पष्ट घोषणा कर रहे हैं –

नाभेस्तु दक्षिणं वर्षं हेमाख्यं तु पिता ददौ[31]

हिमाह्वं दक्षिणं वर्षं भरताय न्यवेदयत् ।

तस्मात् तद् भारतं वर्षं तस्य नाम्ना विदुर्बुधः ।।[32]

इदं हैमवतं वर्षं भारतं नाम विश्रुतम् ।।[33]

अग्निपुराण भारतीय विद्याओं का विश्वकोश कहा जाता है, उसमें स्पष्ट लिखा है –

ऋषभो मरूदेव्यां च ऋषभाद्‌ भरतोभवत्‌।

ऋषभोदात्‌ श्री पुत्रे शाल्यग्रामे हरिंगत:।

भरताद्‌ भारतं वर्ष भरतात्‌ सुमतिस्त्वभूत ।।[34]

एक उदाहरण मार्कण्डेयपुराण का भी द्रष्टव्य है[35]

आग्नीध्र सूनोर्नाभिस्तु ऋषभोभूत द्विज:

ऋषभाद् भरतो जज्ञे वीर: पुत्रशाद्‌ वर: ।।

सोभिषिञ्च्स्युर्षभ: पुत्रं महाप्राव्राज्यमास्थित: ।

तपेस्तेपे महाभाग: पुलहाश्रम-संश्रय: ।।

हिमाहवं दक्षिणं वर्षं भरताय पिता ददौ।

तस्मात्तु भारतं वर्ष नाम्ना महात्मन: ।।

इसी प्रकार अन्य कई ग्रंथों में बार-बार यह शंखनाद किया गया है कि ‘ऋषभ पुत्र भरत” ही इस भारतवर्ष नामकरण के कारण हैं।

‘भारतवर्ष’ शब्द की व्युत्पत्ति बताते हुए श्रीश्री आनन्दमूर्ति ने लिखा है[36] : ‘दो धातुओं का योग- भर् भरणे तथा तन् विस्तारे। भर्+अल् एवं तन्+ऽ से ‘भारत’ शब्द बना है। ‘भर’ का अर्थ है भरण-पोषण करनेवाला एवं ‘तन्’ माने विस्तार करनेवाला, क्रम-क्रम से बढ़नेवाला…. इस तरह ‘भारत’ शब्द बना । वर्ष का अर्थ है भूमि। अतः इस भूमिखण्ड के लिए ‘भारतवर्ष’ नाम अत्यन्त सार्थक है ।’ गोस्वामी तुलसीदास (1497-1623) ने भी ‘भरत’ के नामकरण-प्रसंग में उल्लेख किया है[37]

बिस्व भरन पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई।

महाराष्ट्र के सुप्रसिद्ध संत एकीनाथ ने भी मराठी में अद्भुत व्याख्या की है[38]

ऐसा तो ऋषभाचा पुत्र । जयासी नांव भरत

ज्याच्या नामाची कीर्ति विचित्र । परम पवित्र जगामाजीं ॥ १४५ ॥

असा तो ऋषभाचा पुत्र, त्याचे नांव भरत’. ज्याच्या नांवाची पवित्र कीर्ति सगळ्या जगांत दुमदुमून राहिली आहे ४५.

तो भरतु राहिला हे भूमिकेसी । म्हणौनि भरतवर्षम्हणती यासि ।

सकळ कर्मारंभीं करितां संकल्पासी । ज्याचिया नामासी स्मरताति ॥ १४६ ॥

तो भरत या भूमीत होउन मेला म्हणून या देशाला भारतवर्षअसे म्हणतात. सर्व वैदिक कर्मारंभी संकल्प करितांना त्याच्या नांवाचा उच्चार करावा लागतो ४६.

ऐसा आत्माराम जर्‍ही झाला । तर्‍ही विषयसंग नव्हे भला ।

यालागीं त्याचा वृत्तांतु पुढिला । सांगेन सकळां आ‍इकें ॥ १४७ ॥

पण असा अगदी आत्मारामस्वरूप झाला तरी त्यालासुद्धां विषयसंग योग्य नाही, हे समजण्यासाठी त्याचे पुढील चरित्र मी सर्वांना सांगतों, ते ऐकावें ४७.

नामें ख्याती केली उदंड । यालागीं त्यातें म्हणती भरतखंड

आणीकही प्रताप प्रचंड । त्याचा वितंड तो ऐका ॥ १४८ ॥
नांवानेंच त्यानें आपली फार प्रसिद्धि केली, म्हणूनच याला भरतखंडअसे म्हणतात. पण याहूनही त्याचा प्रताप प्रचंड म्हणजे लोकविलक्षण आहे तो सांगतो ऐक ४८.

सूरदास के सूरसागर की ये पंक्तियाँ भी दृष्टव्य हैं [39]

बहुरो रिषभ बड़े जब भये। नाभि राज दे बन को गये।।
रिषभ राज परजा सुख पायो। जस ताको सब जग में छायो।।
रिषभ देव जब बन को गये। नवसुत नवौ खण्ड नृप भये।।
भरत सो भरत खण्ड को राव। करे सदा ही धर्म अरु न्याव।।

दुष्यंत पुत्र भरत के नाम की भ्रान्ति

गुंजन अग्रवाल लिखते हैं कि अनेक ‘विद्वान्’ डेढ़ सौ वर्ष से तोते की तरह रट रहे हैं कि दुष्यन्तपुत्र भरत (जो सिंह के दांत गिनता था) के नाम पर इस देश का नामकरण ‘भारत’ हुआ है।…..पाश्चात्य इतिहासकारों को तो यह सिद्ध करना था कि यह देश (भारतवर्ष) बहुत प्राचीन नहीं है, केवल पाँच हज़ार वर्ष का ही इसका इतिहास है। इसलिए उन्होंने बताया कि स्वायम्भुव मनु, प्रियव्रत, नाभि, ऋषभदेव, आदि तो कभी हुए ही नहीं, ये सब पुराणों की कल्पनाएँ हैं । ‘पुराणों के विद्वान्’ (?) कहे जानेवाले फ्रेडरिक ईडन पार्जीटर (1852-1927) ने अपने ग्रन्थ ‘Ancient Indian Historical Tradition’ (Oxford University Press, London, 1922) में स्वायम्भुव मनु से चाक्षुस मनु तक के इतिहास को लुप्त कर दिया। दुर्भाग्य की बात है कि हमारे देश के अनेक स्वनामधन्य इतिहासकारों ने भी पाश्चात्यों का अंधानुकरण करते हुए हमारी प्राचीन परम्परा को बर्बादकर दुष्यन्तपुत्र भरत के नाम से ही अपने देश का नामकरण माना।

डा. राधाकुमुद मुखर्जी-जैसे विद्वान् तक ने अपने ग्रन्थ ‘Fundamental Unity of India’ (Bharatiya Vidya Bhawan, Bombay) में लगता है सुनी-सुनाई बातों के आधार पर ही दुष्यन्तपुत्र भरत के नाम से अपने देश का नामकरण माना है। कहाँ तक कहा जाए ! आधुनिक काल के इतिहासकारों ने किस प्रकार भारतीय इतिहास का सर्वनाश किया है, यह व्यापक अनुसन्धान का विषय है।[40] संभवतः यही भूल श्री विष्णुकामथ जी ने भी अपनी विद्वत्तापूर्ण बहस के दौरान कर दी ।

आधुनिक विद्वानों की मान्यता 

डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल जैसे इतिहासज्ञ भी देश में कम हैं जिन्होंने अपनी पुस्तक “मार्कण्डेय पुराण का अध्ययन’’ के टिप्पणी भाग में अपनी भूल स्वीकारते हुए लिखा है कि- “मैंने अपनी ‘भारत की मौलिकता’ नामक पुस्तक में पृष्ठ 22-24 पर दौष्यन्ति-भरत से “भारतवर्ष” लिखकर भूल की थी, इसकी ओर मेरा ध्यान कुछ मित्रों ने आकर्षित किया उसे अब सुधार लेना चाहिए।” और अब यही मानना चाहिए कि तीर्थंकर ऋषभदेव के पुत्र भरत ही भारतवर्ष नामकरण का मूल कारण हैं |

संस्कृत के महान विद्वान् पद्मभूषण बलदेव उपाध्याय जी ने स्पष्ट लिख दिया है[41] – “जैनधर्म के लिए यह गौरव की बात है कि इन्हीं प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र ‘भरत’ के नाम से देश का नामकरण “भारतवर्ष” इन्हीं की प्रसिद्धि के कारण विख्यात हुआ। इतना ही नहीं अपितु कुछ विद्वान भी सम्भवत: इस तथ्य से अपरिचित होंगे कि आर्यखण्ड रूप इस भारतवर्ष का एक प्राचीन नाम नाभिखण्ड या ‘अजनाभवर्ष’ भी इन्हीं ऋषभदेव के पिता “अजनाभ’ के नाम से प्रसिद्ध था। … नाभिराज का एक नाम ‘अजनाभ’ भी था।”

वे आगे पृष्ठ 35 पर लिखते हैं – “इस तरह के प्रमाणों के आधार पर अब उन लोगों की आंखें खुल जानी चाहिए, अर्थात् वे भ्रांतियां मिट जानी चाहिए, जो दुष्यन्त पुत्र भरत या अन्य को इस देश के नामकरण से सम्बद्ध करते हैं। तथा विद्यालयों, कॉलेजों के पाठ्यक्रम में निर्धारित इतिहास की पुस्तकों में भी इससे संबंधित भ्रमों का संशोधन करके इतिहास की सच्चाई से अवगत कराना बहुत आवश्यक है।”

सुप्रसिद्ध इतिहासकार और विद्वान् सूर्यकान्त बाली अपनी पुस्तक ‘भारत गाथा’ में लिखते हैं – ‘हमें ऋषभ याद रहे ,बेशक जैन परंपरा ने उनको दूसरी परम्पराओं की तुलना में कहीं ज्यादा सहेज कर रखा |हमारी हर परंपरा को ऋषभ-पुत्र जड़ भरत भी खूब याद रहे जिनके नाम पर इस देश को अपना नाम मिल गया |’[42]

वे कहते हैं कि ‘अगर जैन और भागवत दोनों परम्पराएँ भरत के नाम पर इस देश को भारत वर्ष कहती हैं तो उसके पीछे की विलक्षणता की खोज करना विदेशी विद्वानों के वश का नहीं ,देशी विद्वानों की तड़प ही इसकी प्रेरणा बन सकती है |पर क्या कहीं न कहीं इसका सम्बन्ध इस बात से जुड़ा नजर नहीं आता कि यह देश उसी व्यक्तित्त्व को सर आँखों पर बिठाता है जो ऐश्वर्य की हद तक पहुँच कर भी जीवन को सांसारिक नहीं ,बल्कि आध्यात्मिक साधना के लिए होम कर देता है |’[43]

संविधान के निर्माताओं के सामने जब यह समस्या आयी कि इस देश का नाम क्या होना चाहिए ?उस समय उनके सामने अनेक विकल्प सामने आये तब उन्होंने निर्णय किया  कि हमें शिलालेखीय साक्ष्य जो मिलेंगे हम उसे ही स्वीकार करेंगे। तब भुवनेश्वर, उड़ीसा में उदयगिरि-खण्डगिरि के शिलालेख जिन्हें प्रसिद्ध जैन सम्राट खारवेल ने खुदवाया था, में ‘भरधवस’ (प्राकृत भाषा में तथा ब्राह्मी लिपि में) अर्थात् भारतवर्ष का उल्लेख प्राप्त हो गया। इस ऐतिहासिक शिलालेख ने चक्रवर्ती भरत के काल से लेकर खारवेल के युग तक देश के “भरत वर्ष! नामकरण को प्रमाणित कर दिया।

यह बात मुझे उन दिनों भी खटकी थी जब स्टार प्लस के सुप्रसिद्ध कार्यक्रम “कौन बनेगा करोड़पति’ (प्रथम) में अमिताभ बच्चन ने हॉट सीट पर बैठे किसी प्रतियोगी से प्रश्न पूछा था कि इस देश का नाम भरत किसके नाम पर पड़ा ? तो ‘ऋषभ पुत्र भरत के नाम पर जैसा कोई विकल्प उनके चार विकल्पों में था ही नहीं। जबकि यही सही उत्तर है। प्रतियोगी को उन चारों गलत उत्तरों में एक चुनना पड़ा।

निवेदन यह है कि भारतीय संस्कृति, सभ्यता, ज्ञान और अध्यात्म की श्रीवृद्धि में जिस भी परम्परा का योगदान जैसा रहा है उसे वैसा महत्व और श्रेय दिया जाना चाहिए। तथ्यों तथा प्रमाणों को छुपाने या उन्हें जैसे-तैसे अपने पक्ष में सिद्ध करने की परम्परा आत्मघाती है। विचारों का जो नया उन्मेष भारत में जगा है वह यही है कि हमारा कोई भी चिन्तन आग्रही न बने। हम दुराग्रह को छोड़कर सत्याग्रही बनें;शायद हम तभी भारत को समझ सकते हैं।इसके लिए हमें हमें भारत वर्ष के मूल नामकरण की वास्तविकता पर आग्रह रहित होकर विचार करना ही होगा –

उसहसुपुत्तो भरदो चक्कवत्तीसासगो छक्खंडे ।

देसोभारदवस्सो णामो वि जादो भरदत्तो ।।

तीर्थंकर ऋषभदेव के पुत्र भरत जो छह खंड के चक्रवर्ती सुशासक राजा थे , अपने देश का नाम भारतवर्ष उन्हीं भरत सम्राट के कारण पड़ा ।

इइ सुकहापुराणेसु ,गायन्ति खलु वेदजइणागमेसु ।

खरवेलसिलालेहे ,’भरधवसखलु दसमपंतिम्मि ।।

यह सुकथा वैदिक एवं जैन पुराणों एवं आगमों में खुलकर गाई गयी है तथा खारवेल के शिलालेख की दसवीं पंक्ति में भी भारत वर्ष यही नाम मिलता है ।

India vs Bharat
India vs Bharat

 

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सहायक प्रमुख आधुनिक ग्रन्थ एवं लेख ,वेबसाइट,ब्लॉग

  1. भरत और भारत(पुस्तक) – डॉ.प्रेमसागर जैन,कुन्दकुन्द भारती,नई दिल्ली
  2. भारत नामा(पुस्तक) – डॉ.प्रभाकरण जैन,भारतीय ज्ञानपीठ ,नई दिल्ली
  3. श्रमण संस्कृति और वैदिक व्रात्य(पुस्तक) – प्रो फूलचंद जैन प्रेमी ,भारतीय ज्ञानपीठ ,नई दिल्ली
  4. किस भरत का भारत ?(लेख )– प्रो अनेकांत कुमार जैन ,वैचारिकी ,कोलकाता
  5. भारत वर्ष का नामकरण(लेख )– प्रो दामोदर शास्त्री ,गुंजन अग्रवाल का लेख आदि अन्यान्य लेख
  6. https://encyclopediaofjainism.com
  7. anekantkumarjain.blogspot.com

 

[1] जैनदर्शन विभाग ,श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विश्वविद्यालय,नई दिल्ली,9711397716

[2] खारवेल –सदानंद अग्रवाल ,दिगंबर जैन समाज कटक,1993,पृष्ठ 11-15

[3] तिलोयपण्णत्ति,भाग 2 ,सम्पादक –डॉ.चेतन पाटनी ,चौथा महाधिकार ,गाथा 1413,पृष्ठ 407,प्रका.श्री १००८ चंद्रप्रभ दिगंबर जैन अतिशय क्षेत्र,देहरा ,तिजारा ,2008

[4] वसुदेव हिंडी ,डॉ.श्रीरंजन सूरिदेव ,पंडित रामप्रताप चेरिटेबल ट्रस्ट,ब्यावर,1989,पृष्ठ 574

[5] सर्वार्थसिद्धि 3/10,अनुवाद – आर्यिका सुपार्श्वमती ,संपादक डॉ.चेतन प्रकाश पाटनी ,प्रका.2007,पृष्ठ 200-201

[6] तत्त्वार्थराजवार्तिक 3/10/1-2,पृष्ठ 171, प्रका.भारतीय ज्ञानपीठ ,1999

[7] पद्मपुराण – आचार्य रविषेण, संपादक –डॉ.पन्नालाल, पर्व-4 ,श्लोक 59,प्रका.भारतीय ज्ञानपीठ ,2022

[8] आदिपुराण,भाग 1,संपादक –डॉ.पन्नालाल ,पंचदशपर्व ,श्लोक 158-159,पृष्ठ 339,प्रका.भारतीय ज्ञानपीठ ,2022

[9] तन्नाम्ना भारतं वर्षमिति हासीज्जनास्पदम् |हिमाद्रेरासमुद्राच्च क्षेत्रं चक्रभृतामिदम् ||-पुरुदेवचम्पूप्रबंधः, महाकविश्रीमद् अर्हदास,संपादक पंडित पन्नालाल जैन ,6/32,भारतीय ज्ञानपीठ,1972,पृष्ठ-241

[10] आदिपुराण,भाग-2,संपादक –डॉ.पन्नालाल ,37वां पर्व ,श्लोक 202,पृष्ठ 238,प्रका.भारतीय ज्ञानपीठ ,2022

[11] आदिपुराण,भाग-2,संपादक –डॉ.पन्नालाल ,37वां पर्व ,श्लोक 203,पृष्ठ 238,प्रका.भारतीय ज्ञानपीठ ,2022

[12] तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 3/10

[13] श्रीधरसेनाचार्य, विश्वलोचनकोश, पृष्ठ ४२२,संपादक-गुलाबचंद जैन ,प्रका.मदनमहल,जबलपुर,1993

[14] माडर्न रिव्यू, अगस्त 1932, पृ. 155-160

[15] ऋग्वेद. म.4. अ. 5. सू.58,मन्त्र – 3

[16] तत्त्वार्थसूत्र 6 / 1

[17] परमात्म प्रकाश ,आचार्य योगिंदु-गाथा 174

[18] बृहदारण्यकोपनिषद् – 215/16

[19] विवेकचूडामणि और ब्रह्मज्ञानावलीमाला,श्लोक 20

[20] श्रीमद्भागवत् 5 / 3 /20

[21] ऋग्वेद, मं. 10, अ. 11. सू. 136, मन्त्र – 2

[22] श्रीमद्भागवत् पुराण, 5/ 4/ 15

[23] ब्रह्ममहापुराण, 18/13

[24] विष्णुमहापुराण, 2/1/12

[25] भागवतमहापुराण, 5/2/21; मार्कण्डेयमहापुराण, 53/31-35

[26] विष्णुमहापुराण, 2/1/18

[27] विष्णुमहापुराण, 2/1/28; कूर्ममहापुराण, ब्राह्मीसंहिता, पूर्व, 40-41

[28] भागवतमहापुराण, 5/4/9,तथा 11/2/17

[29] भागवतमहापुराण, 5/7/3

[30] नृसिंहपुराण, 30; स्कन्दमहापुराण, 1/2/37/57

[31] लिंगमहापुराण, 47.6

[32] वायुपुराण, 33/52; ब्रह्माण्डमहापुराण, 2/14/62; लिंगमहापुराण, 47/23-24

[33] मत्स्यमहापुराण, 113/28

[34] अग्निपुराण 40/10-11

[35] मार्कण्डेयपुराण 50/39-42

[36] महाभारत की कथाएँ, पृष्ठ 7, आनन्दमार्ग प्रचारक संघ, कलकत्ता, 1981 ई.

[37] श्रीरामचरितमानस, बालकाण्ड, 196.7

[38] एकनाथी भागवत अध्याय 2/145-148

[39] सूरसागर, पंचम स्कंध

[40] देखें ,सुप्रसिद्ध लेखक ,समीक्षक और इतिहासविद कुमार गुंजन अग्रवाल का लेख 6 सितंबर 2023 (facebook)

[41] प्राकृतविद्या, शोध पत्रिका ,अंक जुलाई-सितम्बर 2001, पृ. 33 ,कुन्दकुन्द भारती नई दिल्ली

[42] भारत गाथा ,सूर्यकान्त बाली,निष्ठा प्रकाशन,दिल्ली ,पृष्ठ 46 ,1999

[43] वही ,पृष्ठ 36

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